देवभूमि विचार मंच की गोष्ठी; भारत की प्रगति के लिए संस्कृति के संरक्षण एवं प्रसार की सख्त जरूरत

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  • भारत की प्रगति के लिए संस्कृति के संरक्षण एवं प्रसार की सख्त जरूरत है
  • भारत में ‘एकेडमिक’ विभ्रम के शिकार हैं, जिन्हें भारतीय ज्ञान परम्परा का ज्ञान ही नहीं है
  • मैकॉले मानता था संस्कृत एवं हिंदी सहित सभी पूर्वी भाषाओं में कोई ज्ञान नहीं है

देहरादून(विसंके): दून विश्व विद्यालय में ‘औपनिवेशिकता से भारतीय मानस की मुक्ति’ विषय पर आयोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उच्च शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत ने कहा कि भारतीय दर्शन एवं संस्कृति से जुड़े विषयों पर शोध होना चाहिए। भारत की प्रगति के लिए संस्कृति के संरक्षण एवं प्रसार की सख्त जरूरत है। उच्च शिक्षा मंत्री ने कहा की इस विषय में अब तक हुए शोध एक बिशिष्ट विचार धारा से अनुप्राणित थे इस लिए नए सिरे से शोध की आवश्यकता है. संगोष्ठी का आयोजन देवभूमि विचार मंच, दून विश्वविद्यालय और फोनिक्स ग्रुप के संयुक्त तत्वावधान में किया गया।

संगोष्ठी के मुख्य वक्ता डा. शंकर शरण ने कहा कि भारत में ‘एकेडमिक’ कहे जाने वाले लोग एक प्रकार के विभ्रम के शिकार हैं,जिन्हें भारतीय ज्ञान परम्परा का ज्ञान ही नहीं है. उन्होंने कहा भारत के तथाकथित ‘एकेडमिक’ लोग आत्मप्रवंचना में जीते हैं. उन्हें भारत के ज्ञान विज्ञान, भारत की भाषा, भारत की संस्कृति का बिलकुल भी अंदाजा नहीं है. डा. शंकर शरण ने कहा भारत में ब्रिटिश शिक्षा तंत्र और प्रणाली लागू की गई। जिसका उद्देश्य पश्चिमी उपलब्धियों और ज्ञान को भारतीयों तक पहुंचाना था। मैकॉले का मानना था संस्कृत एवं हिंदी सहित सभी पूर्वी भाषाओं में कोई ज्ञान नहीं है। उन्होंने कहा यद्यपि मैकाले साहित्यकार और विद्वान था परन्तु भारत के विषय में वह अज्ञानी था. उसे भारतीय ज्ञान परम्परा की अल्प जानकारी थी जिसे वह अप्रयाप्त मनाता था. डा शंकर शरण ने कहा अंग्रेजों के भारत पर आधिपत्य से पहले भी भारत गुलामी का दंश झेल रहा था परन्तु फिर भी इस देश में अध्ययन, ज्ञान और शोध की पुरानी परंपरा थी। जिसे कभी आगे नहीं बढ़ने दिया गया। आजादी के बाद भी वामपंथियों और पश्चिमों चितंकों के नजरिये से ही भारत के इतिहास और उसकी संस्कृति की व्याख्या की गई। जिसे बदले जाने की जरूरत है। पूरी दुनिया में खत्म हो चुके वामपंथी और समाजवादी विचारों से भारतीय बुद्धिजीविओं का एक बड़ा तबका अब तक चिपका हुआ है।

कार्यक्रम का अध्यक्षीय भाषण दून विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर कुसुम अरूणाचलम ने दिया। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के लोगों ने गढ़वाली और कुमांउनी भाषा एवं संस्कृति को पहले ही खो दिया है। ऐसा ही हश्र हिंदी एवं राष्ट्रीय संस्कृति का ना हो, इसके लिए समय रहते प्रयास करने की जरूरत है। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर यू. एस. रावत, कुमाउं विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर डी.के. नौरियाल, प्रज्ञा प्रवाह के क्षेत्रीय संयोजक भगवती प्रसाद राघव रहे।

संगोष्ठी के तकनीकी सत्र में 36 शिक्षकों एवं शोधार्थियों ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए। तकनीकी सत्र की अध्यक्षता राजकीय महाविद्यालय, पोखरी के प्राचार्य डा. डी. सी. नैनवाल ने की। शोधपत्र प्रस्तुत करने वालों में डा. आर. एस. दीक्षित, डा. दीपक भट्ट, मुकेश देवराड़ी, आदि शामिल रहे। कार्यक्रम के दूसरे सत्र में एच.एन.बी गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. डी.आर. पुरोहित ने उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत विषय पर व्याख्यान दिया। संगोष्ठी का संचालन दून विश्वविद्यालय के प्रबंधशास्त्र विभाग के डीन प्रोफेसर एच.सी पुरोहित ने किया। कार्यक्रम में डा. डी. पी. अग्रवाल, डा. डी.एस. नेगी, डा. डी. एस. मेहरा, सविता मोहन, संयुक्त सचिव, शिक्षा निदेशालय, डा. प्राची पाठक, देवभूमि विचार मंच के अध्यक्ष चैतन्य भंडारी, फोनिक्स ग्रुप की चेयरमैन चैरब जैन आदि मौजूद रहें।

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