उत्तराखण्ड आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय में नियमों की उड़ाई जा रही धज्जियां

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देहरादून, संवाददाता।

राज्य के युवओं को बेहतर शिक्षा दी जाए इसके लिए सरकार महाविद्यालयों और उच्च कोटि के शैक्षिक संस्थानों की नींव रखी। अब हालात ये है कि ज्यादातर संस्थानों में ना शिक्षक हैं और ना ही अन्य कर्मचारी। सरकार द्वारा अस्तित्व में लाए गए विश्वविद्यालयों का आलम यह है कि यहां यूजीसी द्वारा निर्धारित मानकों का कोई औचित्य नहीं है।

उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय में अनियमितताओं का बोलबाला है। यहां नियम कायदों को ताक पर रखकर काम किए जा रहे हैं। कभी नियुक्तियां, कभी मानकों के उल्लंघन और कभी फैकल्टी की कमी के कारण विश्वविद्यालय चर्चाओं में रहा है।
उत्तराखंड आयुर्वेद विश्वविद्यालय साल 2009 में भाजपा सरकार अस्तित्व में आयी। लेकिन तब से लेकर आज तक विश्वविद्यालय का विवादों से गहरा नाता रहा है। आलम यह है कि विश्वविद्यालय नियमावली तक को दरकिनार किया जा रहा है। नियमों की नाफरमानी का हाल यह है कि नियमावली के सेक्शन 19 के तहत समस्त नीतिगत निर्णय लेने वाली कार्य समिति (ईसी) का कार्यकाल फरवरी 2017 में समाप्त हो चुका है। इसके अलावा शैक्षिक परिषद (ऐकेडमिक काउंसिल), बोर्ड ऑफ स्टडी, संकाय मंडल, पाठ्यक्रम मंडल आदि का भी आज तक गठन नहीं किया गया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि पाठ्यक्रम, प्रवेश, नामांकन, परीक्षा, शैक्षणिक, प्रशासनिक, अनुशासनिक कार्यों, उपाधियों को प्रदान करने आदि जैसे महत्वपूर्ण कार्यो की रूपरेखा और क्रियान्वयन इन्हीं समितियों द्वारा किया जाता है। ऐसे में अगर यह समितियां नहीं होंगी तो इन कार्यों का संपादन संभव नहीं है।

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