जन आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी, सत्ता में हाशिए पर ही रही नारी

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उत्तराखंड के जन आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी के बावजूद महिलाएं मुख्यधारा की राजनीति में हाशिए पर रही हैं। राज्य आंदोलन, शराब बंदी, पर्यावरण बचाने के लिए चिपको आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर उत्तराखंड के विकास को नई दिशा दी। लेकिन राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं को उस अनुपात में तरजीह नहीं मिल पाई। आज भी संगठनों, सरकार में जिम्मेदारी पाने और चुनाव में टिकट के लिए महिलाओं को संघर्ष करना पड़ता है।

उत्तराखंड में राज्य गठन के 21 साल बाद भी महिलाओं को सत्ता की कमान नहीं मिली है। उत्तराखंड की राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के सशक्तिकरण और आत्मनिर्भर बनने के दावे तो करते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि  राजनीति में प्रतिनिधित्व करने के लिए महिलाओं को पूरा हक नहीं मिल पाता है। उत्तराखंड के सियासी इतिहास में पिछले चार चुनाव में 70 सीटों पर महिला विधायकों का आंकड़ा दहाई तक नहीं पहुंच पाया है।

राज्य गठन के बाद वर्ष 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में कुल 927 प्रत्याशियों में से 72 महिलाओं ने चुनाव लड़ा। जिसमें सिर्फ चार महिलाएं ही जीत हासिल कर विधानसभा पहुंचे। इसमें कांग्रेस से इंदिरा हृदयेश व अमृता रावत और भाजपा से विजय बड़थ्वाल व आशा देवी विधायक बने। इसी तरह 2007 के चुनाव में  70 सीटों पर कुल 729 प्रत्याशियों में से 56 महिलाएं चुनाव में उतरी। इसमें भाजपा से वीना महराना, आशा देवी, विजय बड़थ्वाल,  कांग्रेस से अमृता रावत ने जीत हासिल की।

इस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी इंदिरा हृदयेश चुनाव हार गई थी। 2012 के चुनाव में कुल 788 प्रत्याशियों में 63 महिलाओं ने चुनाव लड़ा। लेकिन जीत पांच को मिली। इसमें कांग्रेस से इंदिरा हृदयेश, शैला रानी रावत, सरिता आर्य, अमृता रावत और भाजपा से विजय बड़थ्वाल ने चुनाव जीता था। जबकि 2017 के चुनाव में कुल 723 प्रत्याशियों में 80 महिलाओं ने चुनाव लड़ा है। जिसमें पांच महिलाएं चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंची। जिसमें कांग्रेस से इंदिरा हृदयेश, ममता राकेश, भाजपा से रेखा आर्य, रितू खंडूड़ी और मीना गंगोला विधायक हैं। इसमें हल्द्वानी सीट से विधायक एवं नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश का निधन हो गया है।

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