प्रदेश में विधानसभा चुनाव में अभी वक्त है, लेकिन कांग्रेस में टिकटों का गणित अपने पक्ष में रखने को लेकर दिग्गजों में मारामारी मची है। प्रदेश अध्यक्ष बदलने को लेकर बिछाई गई सियासी बिसात में पहले चुनावी और बाद में सत्ता के समीकरणों को ध्यान में रखकर मोहरे तय करने का खेल शुरू हो गया है। खेल में बाजी किसके हाथ लगेगी या चुनाव तक सियासी संतुलन साधते हुए ही पार्टी आगे बढ़ेगी, इसे लेकर गेंद अब पार्टी हाईकमान के पाले में है।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष की अगले विधानसभा चुनाव में 70 सीटों पर टिकट तय कराने में अहम भूमिका रहना तय है। इसी वजह से प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह और नेता प्रतिपक्ष के रूप में डा इंदिरा हृदयेश की जुगलबंदी पार्टी में विरोधी खेमे के निशाने पर हर वक्त रही है। प्रदेश की सियासत पर मजबूत पकड़ रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस महासचिव हरीश रावत के समर्थक गाहे-बगाहे इस जुगलबंदी को निशाने पर लेते रहे हैं। डा हृदयेश के निधन के बाद यह जोड़ी टूट चुकी है। नेता प्रतिपक्ष का पद रिक्त होने के बाद से ही प्रदेश संगठन के मुखिया का पद इस खेमे के निशाने पर है। नेता प्रतिपक्ष की तुलना में प्रदेश संगठन के अध्यक्ष की विधानसभा की कुल 70 सीटों पर टिकटों के निर्धारण में बड़ी भूमिका मानी जा रही है। टिकटों को तय कराने के साथ ही प्रत्याशियों के लिए माहौल बनाने से लेकर चुनावी रणनीति को अंजाम तक पहुंचाने में प्रदेश अध्यक्ष को रणनीतिक कौशल दिखाने का मौका भी मिलेगा। पार्टी काे जीत हासिल होने की दशा में प्रदेश अध्यक्ष की यही अहम भूमिका उसे मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दमदार दावेदार बना सकती है।पार्टी सूत्रों की मानें तो नए नेता प्रतिपक्ष के चयन के साथ प्रदेश अध्यक्ष को बदलने के पीछे जोड़तोड़ का यही सियासी गणित काम कर रहा है। हालांकि इस सबके बीच चुनाव से पहले पार्टी में एकजुटता पर जोर देने की मुहिम को पलीता लगता जरूर दिखाई दे रहा है। बदली रणनीति में संगठन के सामने ऊहापोह उत्पन्न हो गया है तो वहीं विधायकों के साथ ही कार्यकर्त्ताओं में भी मनमुटाव गहराता दिखाई दे रहा है। राज्य में 2016 में बड़ी टूट झेलने और 2017 में बुरी तरह शिकस्त खा चुकी कांग्रेस के लिए मौजूदा हालात नई चुनौती का सबब बनते दिख रहे हैं।