हल्द्वानी। अगर आपको पहाड़ों में पाए जाने वाले लाइकेन, झूलाघास को देखना है या उसकी गहन जानकारी लेनी है तो वन अनुसंधान केंद्र ने पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी में इसके लिए देश का पहला लाइकेन गार्डन तैयार किया है। डेढ़ एकड़ में फैले इस गार्डन में लाइकेन की 80 प्रजातियों को संरक्षित किया गया है।
लाइकेन निम्न श्रेणी की थैलोफाइटा प्रकार की एक वनस्पति है, जो विभिन्न प्रकार के आधारों, वृक्ष की पत्तियों, छाल, तनों, प्राचीन दीवारों, भूतल, चट्टानों और पत्थरों पर पांच हजार मीटर की ऊंचाई तक उगता है।
पहाड़ों में इसे झूलाघास और पत्थर के फूल नाम से भी जाना जाता है। लाइकेन एक तरह के शैवाल की सहचारिता से बनते हैं। भारत में लाइकेन की 600 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से उत्तराखंड के मुनस्यारी में ही 120 से अधिक प्रजातियां हैं।
प्रदूषण का सबसे बड़ा संकेतक है लाइकेन
डायनासोर के समय की इस वनस्पति पर वन अनुसंधान केंद्र हल्द्वानी ने शोध किया और अनुसंधान सलाहकार समिति ने शोध को मंजूर किया।
इसके बाद अनुसंधान केंद्र ने लाइकेन को संरक्षित करने और इस पर अन्य शोध करने के लिए मुनस्यारी में देश का पहला लाइकेन गार्डन तैयार किया है। कुछ ही समय में अनुसंधान केंद्र इसे जनता के लिए खोलने की तैयारी कर रहा है, जिससे आम लोगों को भी लाइकेन के बारे में हर तरह की जानकारी मिल सके।
लाइकेन का पर्यावरण की दृष्टि से भी बहुत महत्व है। लाइकेन प्रदूषण को सहन नहीं कर पाते, इसी कारण इनके किसी स्थान पर घटने या बढ़ने के आधार पर प्रदूषण के स्तर को निर्धारित किया जाता है।
लाइकेन में चट्टानों का क्षरण कर खनिजों को अलग करने की क्षमता भी होती है। इनके विघटन से उस स्थान पर खनिज पदार्थों की सतह बन जाती है, जो अन्य पौधों को उगने में सहायता करती है।
हैदराबाद की बिरयानी, कन्नौज के इत्र में होता है प्रयोग
भारत के विभिन्न स्थानों में लाइकेन का प्रयोग खाने या दवा बनाने में किया जाता है। हैदराबाद की मशहूर बिरयानी में इसे फ्लेवर के लिए और कन्नौज के इत्र में सुगंध के लिए इस्तेमाल करते हैं।
इसकी रैमालाइना प्रजाति से सनक्रीम और मसाले तैयार होते हैं। पारमेलिका, असनिका प्रजाति से रंग और डाई बनाई जाती है।
लाइकेन डायनासोर काल की वनस्पति है, जो अब तक धरती पर है। पर्यावरण के साथ ही औषधीय रूप से भी इस वनस्पति का बहुत महत्व है। इसके संरक्षण के लिए मुनस्यारी में देश का पहला लाइकेन गार्डन तैयार किया है।
– संजीव चतुर्वेदी, वन संरक्षक अनुसंधान