देहरादून : सूबे में जिन सरकारी अस्पतालों पर आम जनता के स्वास्थ्य का जिम्मा है उनमें न तो पर्याप्त डाक्टर हैं और न ही संसाधन। अब तक भी सरकारें इस मर्ज का इलाज नहीं ढूंढ पाई हैं। नई सरकार के सामने भी यह चुनौती मुंह बाये खड़ी है। सरकार के कुछ फैसलों ने उम्मीद जरूर जगाई है पर पीपीपी मोड के मोहपाश से सरकार बाहर नहीं निकल पा रही। वह भी तब जब स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार का यह फार्मूला फेल साबित हो चुका है।
सूबे में स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतरी के लिए बीते सालों में नीतियां तो बनी, मगर धरातल पर उतरी नहीं। यही वजह है कि इतने साल बाद भी सरकारी अस्पतालों में स्वीकृत पदों के अनुरूप न ही डॉक्टरों की तैनाती हुई और न ही अन्य स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता। हैरान करने वाली बात यह कि 13 जनपदों में स्थित सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों के कुल 2715 स्वीकृत पदों के सापेक्ष 1611 पद अभी भी रिक्त चल रहे हैं। इनमें भी विशेषज्ञ डाक्टरों के स्वीकृत 1268 पदों में महज 385 डॉक्टर तैनात हैं।
सिर्फ डॉक्टरों के ही नहीं बल्कि पैरामेडिकल स्टॉफ व अन्य कार्मिकों की तैनाती भी स्वीकृत पदों के अनुरूप नहीं हो पाई। मैदानी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर कुछ हद तक बेहतर जरूर है। बात जब पर्वतीय क्षेत्रों की हो तो हाल वही बदहाल जैसा कि राज्य गठन के दौरान था। सरकारें डॉक्टरों को पहाड़ चढ़ाने में नाकाम रही हैं। अब मौजूदा सरकार जरूर इच्छाशक्ति दिखाई है।
इस साल सरकार दो सौ से अधिक डॉक्टरों को पहाड़ भेजने में कामयाब रही। जिससे कहीं कहीं ही सही व्यवस्था सुधरी है। लेकिन एक बात है जो कहीं न कहीं आम आदमी तक के मन में खटक रही है। खुद अस्पतालों की दशा सुधारने के बजाए सरकार इन्हें निजी हाथों में सौंप रही है। जिसकी शुरूआत मुख्यमंत्री के ही विधानसभा क्षेत्र से हुई।
डोईवाला अस्पताल हिमालयन हास्पिटल ट्रस्ट को दिया जा चुका है। इसके अलावा पौड़ी का अस्पताल भी हिमालयन को सौंपने की तैयारी है। रायपुर अस्पताल के लिए एम्स ने प्रस्ताव दिया है, जबकि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र सहसपुर व सहिया को श्री महंत इन्दिरेश अस्पताल को सौंपने की तैयारी है। कुछ अन्य निजी संस्थाओं ने भी सरकारी अस्पतालों को लेने का आवेदन किया है। निजी सेक्टर से सरकार का यह प्रेम इसलिये भी गले नहीं उतर रहा क्योंकि पीपीपी मोड ने इससे पहले भी सरकार की खासी किरकिरी कराई है।
डॉक्टरों की आस अभी अधूरी
स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार की किसी भी कवायद के बीच डॉक्टरों की कमी आड़े आती है। इस वर्ष नई सरकार के गठन के बाद प्रदेश में एक बार फिर इस दिशा में कसरत शुरू हुई। चिकित्सकों की कमी को पूरा करने के लिए सेना के सेवानिवृत्त चिकित्सक लेने की योजना बनाई गई। इसके लिए आवेदन भी मांगे गए। तकरीबन 200 सेवानिवृत्त चिकित्सकों ने इसमें रुचि दिखाई। लेकिन यह प्रक्रिया अभी भी अधर में लटकी हुई है। इस बीच चिकित्सकों के 712 पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया अंतिम पड़ाव पर है। इस बीच 172 दंत चिकित्सकों का मसला भी हल हो चुका है। प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों से भी तीन साल बाद चिकित्सक मिलने की उम्मीद की जा रही है।
मेडिकल कालेजों में फैकल्टी की कमी
मेडिकल कालेज मानव संसाधन के लिहाज से फीडर का काम करते हैं, लेकिन राज्य के तीन सरकारी मेडिकल कालेजों की तबीयत भी नासाज है। चिकित्सा शिक्षा विभाग के अधीन इन मेडिकल कालेजों में फैकल्टी की खासी कमी है। एक ओर जहां अल्मोड़ा मेडिकल कालेज शुरू होना है, मेडिकल कालेजों में यूजी-पीजी की सीटें बढाने का भी प्रस्ताव है। जिसके लिए आवश्यक फैकल्टी जुटाना किसी चुनौती से कम नहीं है।