- दो दशक पूर्व इस ‘पिरूल’ से कोयला बनाने की तकनीक इस्तेमाल में आई। इससे ईंधन की पूर्ति हो सकती है। जलाऊ लकड़ी के लिए पेड़ों पर दबाव कम हो सकता है। एल पी जी गैस पर भी दबाव कम होगा। यह कोयला कल कारखानों में भी काम आ सकता है। इस प्रकार ‘पिरूल’ से कोयला निर्माण एक उद्योग के रूप में बेहतरीन रोजगार दे सकता है। सरकार को भी अच्छा राजस्व मिल सकता है।
- दूसरा सफल प्रयोग इस ‘पिरूल’ से मोटा कागज बनाने का हुआ है। यह काम किया है गो.ब.पंत नेशनल हिमालयन पर्यावरण विकास संस्थान, कोसी-कटारमल, अल्मोड़ा के वैज्ञानिकों ने। इससे भी एक अच्छा रोजगार सृजित हो सकता है। जो ग्रामीण आर्थिकी को समृद्ध करने के साथ ही सरकार को भी एक अच्छा राजस्व दिला सकता है।
हमारे उत्तराखंड का करीब सत्तर फीसद भू-भाग में जंगल फैले हुए हैं। एक सदी पूर्व हमारे ये पुश्तैनी जंगल बांज, बुरांस, उतीस आदि चौड़ी पत्ती वाले रहे हैं। धीरे-धीरे इनका व्यावसायिक दोहन होने के कारण एवं थोड़ा अंग्रेजों की नीति के कारण यहां चीड़ के वनों का विस्तार हुआ। अंग्रेजों की व्यावसायिक दृष्टि से उनके लिए चीड़ बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। उन्होंने इसका भरपूर लाभ भी उठाया। हालांकि पर्यावरण की दृष्टि से यह अधिक उपयोगी नहीं कहा जा सकता है।
बांज, बुरांस, अंयार, उतीस आदि चौड़ी पत्ती वाले वनों से हमारा पर्यावरण समृद्ध बनता है। ये वन हमारे खेती-किसानी, पशुपालन, बागवानी जैसे पुश्तैनी धंधों के लिए बहुत उपयोगी रहे हैं। चौड़ी पत्ती के वनों के नष्ट होने से रक्त बीज की तरह बढ़ने वाला चीड़ विस्तार पा गया। यह पत्थरीली भूमि में भी आसानी से पनपता है और बढ़ता है।
अंग्रेजों ने इन चीड़ के वनों से भरपूर लाभ लिया। सत्तर के दशक तक चीड़ के पेड़ों से लीसा हमारे अधिकांश ग्रामीणों के लिए रोजगार का उत्तम साधन रहा। चीड़ के पेड़ों से बल्लियां, तख्ते जैसी इमारती लकड़ी भी मिल जाया करती थी। धीरे-धीरे इनका भी अंधाधुंध दोहन के कारण इन वनों को भी बहुत नुकसान पहुंचा है। कहीं-कहीं आज भी लीसा निकाला जाता है। लेकिन आज इन वनों से न अपेक्षित लाभ आम जनता को ही मिल पा रहा है और न ही सरकार को। यद्यपि इन वनों को भी आज बहुत नुकसान पहुंच रहा है तो भी इनका क्षेत्रफल कुल वनों का नब्वे फीसद से अधिक अभी मौजूद है।
ये चीड़वन पर्यावरण की दृष्टि से अधिक लाभकारी नहीं होते। भूमि की उर्वरा शक्ति भी कम करते हैं। जैव विविधता की दृष्टि से भी उपयोगी नहीं होते। इन वनों में अन्य वनस्पतियां भी कम ही पनप पाती हैं। चीड़ की सूखी पत्तियां ‘पिरूल’ कहलाती हैं। जब ये जमीन पर गिरती हैं तो वनाग्नि का कारण और कारक बनती हैं। इस वनाग्नि से बड़े पेड़ों, छोटे पौधों, कीमती वनस्पतियों एवं वन्य जीवों को भारी क्षति पहुंचती है। इसके पीछे बजट का एक बड़ा हिस्सा भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। वनाग्निजनित धुएं से वातावरण अलग से प्रदूषित होता है। इससे तापमान में वृद्धि, बादल, वर्षा और मौसम सभी प्रभावित होते हैं।
करीब दो दशक पूर्व इस ‘पिरूल’ से कोयला बनाने की तकनीक इस्तेमाल में आई। इससे ईंधन की पूर्ति हो सकती है। जलाऊ लकड़ी के लिए पेड़ों पर दबाव कम हो सकता है। एल पी जी गैस पर भी दबाव कम होगा। यह कोयला कल कारखानों में भी काम आ सकता है। इस प्रकार ‘पिरूल’ से कोयला निर्माण एक उद्योग के रूप में बेहतरीन रोजगार दे सकता है। सरकार को भी अच्छा राजस्व मिल सकता है।
दूसरा सफल प्रयोग इस ‘पिरूल’ से मोटा कागज बनाने का हुआ है। यह काम किया है गो.ब.पंत नेशनल हिमालयन पर्यावरण विकास संस्थान, कोसी-कटारमल, अल्मोड़ा के वैज्ञानिकों ने। इससे भी एक अच्छा रोजगार सृजित हो सकता है। जो ग्रामीण आर्थिकी को समृद्ध करने के साथ ही सरकार को भी एक अच्छा राजस्व दिला सकता है।
इसके लिए जरूरत है दृढ़संकल्प, बजट, काम करने का जज्बा-जुनून एवं ईमानदारी से कड़ी मेहनत करने की। सरकार, वन विभाग एवं योजनाकारों को इस पर चिंतन-मंथन
● अणां-गरुड़ (बागेश्वर)