श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन और इस आंदोलन के स्मरण के साथ ही इसके नायकों में जो नाम प्रमुखता से उभरकर सामने आता है वह हैअशोक सिंहल का. अशोक जी ने राष्ट्र की सुप्त पड़ी विराट चेतना को श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के माध्यम से झकझोर कर रख दिया. प्रांत भाषा, क्षेत्र के भेदभाव सुप्त पड़ गए. कश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण भारत एक स्वर में जयश्रीराम के नारों से गूंज उठा.
एक विदेशी आक्रांता द्वारा राष्ट्र के आदर्श एवं उपास्य के जन्मस्थान को ध्वस्त कर बनाया गया ढांचा देखते ही देखते ध्वस्त हो गया, लेकिन इस आंदोलन की पूर्णाहुति अभी बाकी है जो श्रीराम जन्मूभमि पर भव्य मंदिर निर्माण के साथ ही भारत के जन-जन में श्रीराम के चरित्र के आधान से पूर्ण होगी.
श्रद्धेय अशोक जी का मानना था कि यह आंदोलन भारत की सांस्कृतिक स्वतंत्रता का आंदोलन है. श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण द्वारा इस आंदोलन का द्वितीय चरण पूर्ण होगा. परंतु यह आंदोलन अपनी पूर्णता को तब प्राप्त करेगा, जब संपूर्ण भारत श्रीराम के आदर्शों पर चलते हुए एक आध्यात्मिक राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित होगा. जब इस राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक अपने राष्ट्र की अस्मिता आदर्श एक मानबिंदु के प्रति जागरूक रहते हुए अपना आचरण करेगा. जब इस देश में कोई अशिक्षित वंचित, भूखा एवं लाचार नहीं होगा. जब इस देश के शौर्य एवं संगठन की अदभुत शक्ति को देखकर कोई परकीय भारत की तरफ वक्र दृष्टि से देखने का साहस नहीं करेगा.
अब वह समय आ गया है जब श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर निर्माण के साथ ही राष्ट्र इस आंदोलन के तृतीय चरण में प्रवेश कर दुनिया के सामने एक समर्थ शक्तिशाली एवं समृद्ध भारत के रूप में खड़ा हो. तभी श्रद्धेय अशोक सिंहल जी का स्वप्न साकार होगा.
अशोक जी का जीवन कर्मज्ञान एवं भक्ति का अदभुत समन्वय था. उनके जीवन पर तीन महापुरुषों का बहुत गहरा प्रभाव था, जिसका वह यदा-कदा उल्लेख किया करते, अपितु उनके संपूर्ण जीवन पर गहराई से दृष्टि डालने पर इन महापुरुषों की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है.
इनमें प्रथम महापुरुष हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परमपूज्य श्रीगुरुजी. अपने संस्मरण में वे सुनाया करते थे कि एक बार वह अपने कानपुर के कार्यकाल में इटावा के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में एक संत से मिलने गए. उन्होंने परिचय पूछा – तब अशोक जी को लगा कि शायद महात्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विषय में न जानते हों, इसलिए उन्होंने कहा कि एक महात्मा हैं गोलवलकर जी, मैं उनका अनुयायी हूं. उन महात्मा ने तुरंत प्रश्न पूछा तुम जानते हो गोलवलकर क्या कर रहे हैं ? अशोक जी ने कहा, महाराज जी आप ही मार्गदर्शन करने की कृपा करें.
उन महात्मा ने जो उत्तर दिया, वही अशोक जी के जीवन का केंद्र बिंदु बन गया. उन्होंने कहा, तुमने जमीन में पड़ी दो-चार इंच चौड़ी दरारें देखीं होंगी, किंतु हिन्दू समाज में इतनी चौड़ी दरारें पड़ गई हैं, जिनमें हाथी चला जाए. गोलवलकर उन्हीं दरारों को भरने का कार्य कर रहे हैं. तुम पुण्यात्मा हो जो उनके साथ लगे हो. अशोक जी ने इसको अपना ध्येय बनाया और विश्व हिन्दू परिषद में आने के बाद धर्म संसद एवं श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के माध्यम से संपूर्ण देश के साधु-संतों और हिन्दू समाज को संगठित करने का महती कार्य किया.
उनके जीवन को प्रभावित करने वाले दूसरे व्यक्ति थे, उनके गुरुदेव श्रीरामचंद्र तिवारी जी. जो वेदों के साधक थे और जिनकी प्रेरणा से अशोक जी के जीवन में संघ के समाज संगठन एवं राष्ट्रजागरण के प्रत्यक्ष कार्य के साथ अध्यात्म की एक आंतरिक धारा भी प्रवाहित हो चली, जिसका समन्वय उनके जीवन की अंतिम सांस तक बना रहा.
अशोक जी का जीवन जितना आंदोलनात्मक था, उतना ही संरचनात्मक भी था जो उनके बहुआयामी कार्यों से प्रकट होता है. गंगारक्षा, गोरक्षा, अस्पृश्यता निवारण, शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधित सेवाकार्य की प्रेरणा, संघ कार्य के साथ ही उस काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें प्राप्त हुई थी. जहां पर उन्होंने शिक्षा प्राप्त की. जिसके अधिष्ठाता महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने स्वयं इन सभी विषयों पर चिंतन एवं कार्य किया था.
सनातनी, आर्यसमाजी, सिख, बौद्ध और जैन सभी को अपनी-अपनी परंपराओं का पालन करते हुए परस्पर प्रेम और आदर से गूंथने का जो महान कार्य अशोक जी के द्वारा किया गया, वह अद्वितीय है. समाज में कोई भी अछूता नहीं है, सब ही भारत माता के सहोदर पुत्र हैं. अशोक जी ने इसे साकार कर दिखाया. उनके जीवन के व्यक्तित्व का यह अदभुत कौशल था कि देश के शीर्षस्थ, संत महात्मा काशी के डोम राजा के घर सहभोज में सम्मिलित हुए.
अशोक जी का जीवन समाज एवं भारत के स्वर्णिम भविष्य के लिए एक प्रकाश स्तंभ है. अंत समय तक उनका सतत सक्रिय जीवन प्रत्येक राष्ट्रभक्त के लिए प्रेरणा स्रोत है. वह श्रीगुरुजी का संस्मरण सुनाते हुए कहा करते थे कि कार्यकर्ता केवल चिता पर विश्राम करता है और उन्होंने अपने जीवन में इसे चरितार्थ कर दिखाया. 17 नवंबर 2015 को शरीर छोड़ने के तीन दिन पूर्व तक एक अनथक कर्मयोगी की तरह वह मां भारती की सेवा में सक्रिय रहे. ऐसे महापुरुष की पुण्य तिथि पर सादर नमन.