भारत के प्रत्येक जिले में प्रवास करते हुए श्री गुरुजी राष्ट्रीय महत्व की समस्याओं और मुद्दों पर लोगों एवं सरकार को सचेत करते हुए भविष्य में आने वाले संकटों की जानकारी तथा उनका समाधान बताते रहते थे. दिसंबर 1951 में वैश्य कॉलेज रोहतक (हरियाणा) के मैदान में स्वयंसेवकों तथा नागरिकों को संबोधित करते हुए श्री गुरुजी ने कहा था – “भारत ने चीन को तिब्बत की भूमि भेंट करके एक भयानक भूल कर डाली है. जो गलती अंग्रेजों ने नहीं की, वह भारतीय सरकार ने कर दी है. यह अदूरदर्शिता है. चीन की प्रकृति विस्तारवादी है तथा निकट भविष्य में उसके द्वारा भारत पर आक्रमण करने की संभावना है.”
इसी तरह ‘हिंदी चीनी-भाई भाई’ और पंचशील के आकर्षक नारों के बीच श्री गुरुजी ने हिमालय पर खतरे के संकेत दे दिए. जब अक्तूबर 1962 में चीन ने भारत पर सीधा हमला कर दिया तो श्री गुरुजी ने स्वयंसेवकों को भारतीय सेना के युद्ध प्रयत्नों और सरकार की प्रशासनिक व्यवस्थाओं में सहयोग करने का आदेश दिया. असम में स्वयंसेवकों ने सैनिकों की सहायता से लेकर नागरिक प्रशासन एवं यातायात संभालने तक सभी कार्य कुशलता पूर्वक संपन्न किए.
भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु भी स्वयंसेवकों की निःस्वार्थ राष्ट्रभक्ति से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे. उन्होंने 1963 में दिल्ली के राजपथ पर होने वाली गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेने के लिए संघ को निमंत्रण दिया. जिस पर 3500 गणवेश धारी (वर्दी) स्वयंसेवकों ने परेड में भाग लिया था. देशभक्ति एवं अनुशासन प्रियता से देशवासियों को प्रभावित करने वाले स्वयंसेवकों ने इस महत्वपूर्ण प्रसंग का भी प्रचार करने से परहेज किया.
चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति और पड़ोसी पाकिस्तान की विस्तारवादी मजहबी रणनीति के मद्देनजर श्री गुरुजी ने सरकार को शीघ्र परमाणु बम बनाने का सुझाव भी दिया था. देश की बाह्य एवं भीतरी सुरक्षा के लिए उन्होंने भारत सरकार से भारतीय सेना का आधुनिकिकरण करने का ठोस आग्रह भी किया था. वह शक्तिशाली, सुरक्षित तथा आत्म निर्भर भारत के पक्षधर थे.
उल्लेखनीय है कि चीन के हाथों भारत की पराजय होने के पश्चात नेपाल का झुकाव चीन की तरफ हो गया था. श्री गुरुजी 1963 में नेपाल गए. उन्होंने नेपाल के तत्कालीन महाराजा महेंद्र, प्रधानमंत्री तुलसी गिरी से भेंट करके उन्हें भारत के साथ मधुर संबंध बनाए रखने का महत्व समझाया था. भारत वापस आकर उन्होंने यह जानकारी प्रधानमंत्री नेहरू को दी.
02 वर्ष बाद जब प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री नेपाल गए तो उन्होंने नेपाल नरेश के साथ हुई अपनी बातचीत का आधार श्री गुरुजी के विचारों को ही बताया था. उन्हीं दिनों शास्त्री जी ने अटल बिहारी वाजपेयी को बताया था – “मेरे नेपाल प्रवास के लिए अनुकूल पृष्ठभूमि तैयार कर नेपाल-भारत मैत्री सुदृढ़ करने का मेरा तीन चौथाई काम श्री गुरुजी अपने नेपाल दौरे द्वारा पहले ही कर चुके थे”.
1965 में पाकिस्तान ने भारत पर दूसरी बार आक्रमण किया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने एक विशेष विमान भेज कर श्री गुरुजी को मंत्रणा के लिए दिल्ली बुलाया. भारत की युद्धनीति पर चर्चा हुई. बैठक में भारतीय सेना के तीनों अंगों के प्रमुख तथा रक्षामंत्री यशवंतराव चव्हाण भी उपस्थित थे.
श्री गुरुजी ने पाकिस्तान जैसे शत्रु के साथ आक्रमक युद्धनीति अपनाने का सुझाव देते हुए स्पष्ट कहा था – “पाकिस्तान की केवल सेना और युद्ध सामग्री को नष्ट करने से नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व को ही मिटाने से अपना देश हमेशा के लिए संकट से मुक्त हो सकता है.” भारतीय सेना द्वारा विभिन्न क्षेत्रों को भी भारत के कब्जे में ही रखने का सुझाव श्री गुरुजी ने दिया था. युद्ध के बाद श्री गुरुजी ने शास्त्री जी से ताशकंद ना जाने का आग्रह भी किया था.
1971 में हुए भारत-पाक युद्ध के बाद श्री गुरुजी ने तत्कालीन रक्षामंत्री जगजीवन राम को भेजे अपने बधाई पत्र में लिखा था – “आप के नेतृत्व में अपनी सेना ने संपूर्ण विजय को प्राप्त किया है, यह स्वर्णाक्षरों मे लिखने योग्य है.” इसी के साथ उन्होंने सरकार को सुझाव दिया था कि बांग्लादेश प्रांत का निर्माण किया जाए और पूर्वी बंगाल इकाई को कश्मीर की तरह कुछ विशेष सुविधाएं दे दी जाएं. श्री गुरुजी के मतानुसार “स्वतंत्र बंगला देश कट्टरपंथी इस्लामिक राज्य बन कर एक शत्रु देश में बदल सकता है”.
राष्ट्र की सुरक्षा और समाज की एकता को सर्वोपरि मानते हुए श्री गुरुजी समस्त राजनीतिक दलों और संगठनों को राष्ट्रहित के लिए दल हित छोड़ने की प्रेरणा देते थे. जब प्रथम पंजाबी सूबे की मांग पर अकाली दल और जनसंघ आमने-सामने आए तो पंजाब की सदियों पुरानी एकता खंडित होने लगी. उस समय श्री गुरुजी ने जालंधर (पंजाब) में एक जनसभा में कहा था – “पंजाब के सभी लोगों (हिन्दू-सिक्ख) की भाषा पंजाबी है. सभी हिन्दू मतगणना में अपनी भाषा पंजाबी लिखवाएं.” इस तरह उन्होंने पूरे पंजाब को एकता के सूत्र में बांध दिया.
इतिहास साक्षी है कि श्री गुरुजी के इन विचारों की प्रशंसा पंजाब के उस समय के मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों ने विधानसभा में की थी. श्री गुरुजी के इन्हीं विचारों से प्रभावित हो कर पंजाब के प्रसिद्ध अकाली नेता मास्टर तारा सिंह ने विश्व हिन्दू परिषद की केंद्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनना स्वीकार किया था.
सर्वविदित है कि 1955 में भी श्री गुरुजी की प्रेरणा से प्रारंभ हुए गोवा मुक्ति आंदोलन में स्वयंसेवकों ने भाग लेकर अपना बलिदान दिया था. उस समय श्री गुरुजी ने सरकार को सलाह दी थी – “गोवा में सैन्य कार्यवाही करने का यही सुनहरा मौका है. इससे गोवा तो स्वतंत्र होगा ही, हमारे राष्ट्र की प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी”. यही हुआ भी. सरकार ने सैनिक कार्रवाई की और गोवा पुर्तगालियों के चंगुल से मुक्त हो गया.
स्पष्ट है कि संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने अपना सारा जीवन राष्ट्राभिमुख समाज निर्माण के पवित्र उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया. उनके राष्ट्रसमर्पित जीवन चरित्र को उनके निधन के बाद विभिन्न दलों और साधु-संतों द्वारा व्यक्त किए गए उद्गारों से समझा जा सकता है. सभी वर्गों के नेताओं ने श्री गुरुजी को अजात शत्रु, राष्ट्र संत, संस्कृति के महामानव और मनीषी के सम्बधनों से विभूषित किया. …..इति
पूर्व संघ प्रचारक, लेखक एवं स्तम्भकार