अपै्रल में पकने वाला काफल नवंबर में पककर तैयार

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बागेश्वर। संवाददाता। उत्तराखंड में ‘बेड़ू पाको बारामासा, नारेणी काफल पाको चैता मेरी छैला’ बड़ा प्रसिद्ध गीत है। सभी जानते हैं और गीत में जिक्र है कि काफल चैत के महीने पकता है। अगर चैत का मौसमी फल काफल चार महीने पहले मंगसीर में ही पेड़ पर नजर आ जाए तो आप हैरान जरूर होंगे।

जी हां, ऐसा हुआ है।कौसानी टीआरसी स्थित काफल के दो पेड़ इन दिनों फलों से लकदक हैं। इनमें कुछ फल पक भी रहे हैं। कुमाऊं में सामान्यतरू काफल का फल मार्च-अप्रैल में होता है। कुदरत के इस करिश्मे पर वैज्ञानिक आश्चर्यचकित हैं। अलबत्ता, काफल से लदे ये पेड़ पर्यटकों और स्थानीय लोगों के लिए कौतूहल का केंद्र बने हैं। वैज्ञानिक भी इसे अपनी-अपनी तरह से देख रहे हैं। कोई इसे ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा कह रहा है, जबकि कोई जेनेटिक चेंज की बात कर रहा है।

जेनेटिक चेंज के कारण ऐसा होता है
राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद के पूर्व महानिदेशक जीएस रौतेला का कहना है कि आश्चर्यजनक, जेनेटिक चेंज के कारण ऐसा हो सकता है। अंदरूनी व्यवस्था में बदलाव भी एक कारक हो सकता है। बौना पेड़, प्रायरू ऑफ सीजन में भी फल दे देता है, लेकिन यहां ऐसा भी नहीं है।

अभी काफल पकने लायक तापमान भी नहीं
जिला उद्यान अधिकारी, बागेश्वर तेजपाल सिंह का कहना है कि काफल फॉरेस्ट प्लांट है। अभी तो फल और पकने के लायक तापमान भी नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग इसका एक कारण हो सकता है।

पेड़ों की देखरेख अच्छी
टीआरसी में कार्यरत जगत सिंह ने बताया कि पेड़ों की अच्छी देखरेख हो रही है। टीआरसी परिसर में ये दोनों पेड़ प्राकृतिक रूप से उगे हैं। यहां कुल मिलाकर काफल के छह से अधिक पेड़ हैं। पिछले सात साल से इनमें मार्च-अप्रैल में ही फल आ रहा है। लेकिन इस बार इन दो पेड़ों में नवंबर में ही फल आ गया है।

 

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