कभी दौड़ती थी साइकिल और हाथी दिखाता था दम, लेकिन आज दोनों बेदम

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यूपी में राज करने वाली जिन पार्टियों ने उत्तराखंड में कभी अपनी पकड़ और अकड़ का जलवा दिखाया था, आज वह केवल चुनावी उछलकूद तक सीमित रह गई हैं। हालात यह हैं कि वह पूरी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ पाते। ये  मैदानी जिलों तक सिमटकर रह गई हैं। पहाड़ की चढ़ाई दोनों दलों के लिए सपने की तरह है।

यूपी के समय में बनते थे विधायक-सांसद, आज प्रत्याशी तक के लिए तरसी सपा
उत्तर प्रदेश में तीन बार सरकार चलाने वाली समाजवादी पार्टी, उत्तराखंड में गुमनामी के अंधेरे में कैद है। बार-बार साइकिल को पहाड़ तक चढ़ाने की कवायद हर बार मैदानी क्षेत्रों से आगे नहीं बढ़ पाती है। राज्य गठन से पहले जिस पार्टी ने उत्तराखंड क्षेत्र में विधायक दिए, राज्य बनने के बाद विधानसभा चुनाव में एक जीत को पार्टी तरस रही है।

राज्य गठन से पहले मुन्ना सिंह चौहान, अमरीश कुमार जैसे विधायक देने वाली, पहाड़ी राज्य की राजधानी गैरसैंण के लिए 28 साल पहले कौशिक समिति का गठन करने वाली समाजवादी पार्टी राज्य गठन के बाद प्रदेश की जनता के दिलों में जगह नहीं बना पाई। कुल मिलाकर देखें तो सपा को राज्य गठन के बाद केवल 2004 में राजेंद्र कुमार सांसद जरूर मिले।

56 सीटों पर दावेदारी से 18 सीटों पर पहुंचे
समाजवादी पार्टी का उत्तराखंड में हाल इसी से पता चलता है कि वोटर तो छोड़ों पार्टी यहां प्रत्याशी तलाश करने के मामले में भी लगातार पिछड़ती जा रही है। पहली अंतरिम सरकार के बाद हुए 2002 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 56 सीटों पर दावेदार उतारे थे। इसके बाद 2007 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 42 सीटों पर दावेदार उतारे। 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 32 सीटों पर दावेदार करती नजर आई। 2017 के विधानसभा चुनाव में यह संख्या 18 पर पहुंच गई। अब 2022 के चुनाव को लेकर पार्टी प्रत्याशी तलाश रही है।

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