क्या किसान आंदोलन में वास्तविक मुद्दों पर भारी पड़ गई राजनीति? किसान नेता डॉ. कृष्णबीर चौधरी की महत्वपूर्ण राय

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पंजाब में आज भी आलू बीजों का उत्पादन कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए किया जा रहा है। गन्ने की लगभग 80 प्रतिशत खेती आज भी सहकारी समितियों से कॉन्ट्रैक्ट के माद्यम से की जा रही है। ऐसे में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों की जमीन छिन जाएगी, यह बात कहना दुर्भाग्यपूर्ण है।

क्या किसान आंदोलन में किसानों के वास्तविक मुद्दों पर राजनीति भारी पड़ गई है? अगर किसान नेता कृष्णबीर चौधरी की मानें तो यही हो रहा है क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार ने नए कृषि कानूनों में कई वही प्रावधान लागू करने की कोशिश की है जो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार करने की कोशिश कर रही थी। मनमोहन सिंह सरकार-2 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में एपीएमसी मंडियों को खत्म करने की बात की गई थी। किसान नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत भी खुले बाजार की मांग करते रहे थे।

ऐसे में आज जब सरकार उन्हीं प्रावधानों को लागू करने की कोशिश कर रही है तो इसका विरोध क्यों हो रहा है? किसान नेता के मुताबिक कृषि सुधारों पर वामपक्ष की राजनीति भारी पड़ती दिख रही है। हालांकि वे यह स्वीकार करते हैं कि अगर कानून बनाने से पहले सभी पक्षों से ज्यादा बातचीत कर ली गई होती, और कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य को लिखित कानून बना दिया गया होता तो आज के विवाद से बचा जा सकता था।

भारतीय कृषक समाज के अध्यक्ष डॉ. कृष्णबीर चौधरी ने शनिवार को अमर उजाला डॉट कॉम से विशेष बातचीत के दौरान कहा कि मनमोहन सिंह सरकार के समय में भी एपीएमसी मंडियों को खत्म करने की मांग की गई थी। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में 500 किसानों और किसान संगठनों से बातचीत के दौरान यह बात सामने आई थी कि मंडियों में किसानों का शोषण हो रहा है, उन्हें उनकी फसलों के उचित मूल्य नहीं मिल रहे हैं।

इसके लिए आठ मुख्यमंत्रियों की अगुवाई में एक कमेटी का गठन भी किया गया था। हालांकि, यह कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई, लेकिन आज जब वर्तमान सरकार उसी कोशिश को पूरा कर रही है तो उसका विरोध किया जा रहा है। उन्होंने इस विरोध को पूरी तरह राजनीति से प्रेरित बताया।

विरोध से बच सकती थी सरकार

किसान नेता ने कहा कि अगर इस कानून को बनाने से पहले किसानों, विशेषज्ञों से और ज्यादा बात की गई होती तो आज के टकराव से बचा जा सकता था, लेकिन इसकी वजह से नरेंद्र मोदी सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करना ठीक नहीं है क्योंकि इसी सरकार ने किसानों के हित में अनेक ऐसे काम किए हैं जो आज तक किसी अन्य सरकार ने नहीं किए।

उन्होंने कहा कि मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में पूरे पांच साल के दौरान केवल दो लाख करोड़ रुपये से कुछ अधिक के खाद्यान्न की खरीदी की गई थी, जबकि नरेंद्र मोदी सरकार के पांच साल के कार्यकाल में पांच लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खाद्यान्न की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर की गई है। ऐसे में इस सरकार पर किसान विरोधी होने का आरोप लगाना गलत है।

चौधरी के अनुसार किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने भी अपने जमाने में आंदोलन करते हुए यही मांग की थी कि अगर व्यापारी अपनी बनाई सूई को भी अपनी कीमतों पर बेचता है तो किसानों को भी अपनी फसलों को अपने मनचाहे मूल्य पर बेचने की अनुमति क्यों नहीं मिलनी चाहिए। वे भी फसलों को खुले बाजार में बेचने के पक्ष में थे। आज नरेंद्र मोदी सरकार के कानून में इसकी व्यवस्था की जा रही है तो कुछ लोग बिना इसकी असलियत जाने विरोध कर रहे हैं।

कृषि का समझौता, भूमि का नहीं

किसान नेता ने कहा कि किसानों को डर दिखाया जा रहा है कि कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से उनकी जमीनें छिन जाएंगी, जबकि यह सरासर झूठ है। किसानों और प्राइवेट कंपनियों के बीच समझौता केवल कृषि उपज का होगा, भूमि के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। ऐसे में भूमि छिनने की बात कहना बिल्कुल गलत है।

उन्होंने बताया कि पंजाब में आज भी आलू बीजों का उत्पादन कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए किया जा रहा है। गन्ने की लगभग 80 प्रतिशत खेती आज भी सहकारी समितियों से कॉन्ट्रैक्ट के माद्यम से की जा रही है। ऐसे में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों की जमीन छिन जाएगी, यह बात कहना दुर्भाग्यपूर्ण है।

 

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