पहाड़ में थमेगा पलायन, लौटेगी गांवों की रंगत; जानें- सरकार ने उठाए क्या कदम और किसकी है दरकार

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कोरोनाकाल में प्रवासियों की वापसी से जिस तरह गांवों में रंगत रही और बड़ी संख्या में प्रवासियों ने गांव में रहकर स्वरोजगार के क्षेत्र में हाथ आजमाया है, वह उम्मीद जगाने वाला है। इस सबको देखते हुए प्रदेश सरकार ने पलायन की रोकथाम के मद्देनजर गांवों में मूलभूत सुविधाएं जुटाने के साथ ही रोजगार, स्वरोजगार पर विशेष ध्यान केंद्रित किया है। मूलभूत सुविधाओं के विस्तार और आधारभूत ढांचे के विकास लिए मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम व सीमांत क्षेत्र विकास योजनाएं शुरू की गई हैं तो स्वरोजगार के लिए विभिन्न विभागों की योजनाओं को एक छत के नीचे लाकर मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना। इन कदमों के नतीजे बेहतर रहे हैं, मगर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षों में पलायन की चुनौती से पार पाने को सरकार और अधिक तेजी से कदम उठाएगी।

चीन व नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के गांवों से निरंतर हो रहा पलायन एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। प्रदेश की मौजूदा सरकार ने भी इसे गंभीरता से लिया और पलायन की स्थिति और इसके कारणों को जानने के मद्देनजर ग्राम्य विकास विभाग के अंतर्गत उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग गठित किया। संभवत: यह पहली बार है, जब किसी राज्य में ऐसे आयोग का गठन हुआ। सितंबर 2018 में गठित आयोग राज्य में पलायन की स्थिति और कारणों को लेकर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप चुका है। आयोग ने विभागवार रिपोर्ट देने के साथ ही अब तक 10 जिलों की सामाजिक-आर्थिक सर्वे रिपोर्ट तैयार कर सरकार को सौंपी हैं।

आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में वर्ष 2011 तक 968 गांव पलायन के चलते जनविहीन हो गए थे। 2011 के बाद 2018 तक इसमें 734 गांव और शामिल हो गए। इसके साथ ही सैकड़ों गांव ऐसे हैं, जहां आबादी अंगुलियों में गिनने लायक रह गई है। राज्य में कुल गांवों की संख्या 16 हजार से अधिक है। रिपोर्ट बताती है कि यहां के गांवों से हो रहा पलायन मजबूरी का है। मूलभूत सुविधाओं और रोजगार के अभाव के कारण बेहतर भविष्य के लिए लोग पलायन कर रहे हैं।

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