विवेकानन्द शिला स्मारक : कहानी एक अद्भुत राष्ट्रीय स्मारक की -लेखिका-अलकागौरी

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भारत के इतिहास में और विशेष रूप से स्वामी विवेकानन्द के जीवन में उस शिला की बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है. गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानन्द को बताया था कि तुम्हें माँ की सेवा करनी है. अब जिसकी सेवा करनी है. उस भारत माँ को समझना पहले आवश्यक था; इसलिए स्वामी विवेकानन्द भारत परिक्रमा करते हुए अंत में कन्याकुमारी पहुंचे.

भारतभूमि के अंतिम छोर पर खड़े होकर सामने समुद्र के मध्य श्रीपाद शिला को देख ‘जिस शिला पर देवी कन्याकुमारी ने शिव की प्राप्ति के लिए तपस्या की थी, उसी शिला पर ध्यान करने से मुझे भी मेरे जीवन लक्ष्य की – शिवत्व की प्राप्ति हो सकती है’ यह विचार उनके मन में प्रखर हुआ. संन्यासी के पास पैसे न होने के कारण कोई नाव से ले जाने तैयार नहीं था. पर, यह तूफान रुकने वाला नहीं था. अपनी धोती बांधकर स्वामी विवेकानन्द सागर में कूद पड़े और तैरकर शिला पर पहुंचे. 3 दिन, 3 रात शिला पर किये ध्यान के बाद का अनुभव वह अपने गुरुभाई को लिखते हैं – “भारत के अंतिम छोर पर स्थित शिला पर बैठकर – मेरे मन में एक योजना का उदय हुआ – मान लें कि कुछ निःस्वार्थ संन्यासी, जो दूसरों के लिए कुछ अच्छा करने की इच्छा रखते है, गाँव-गाँव जाएं, शिक्षा का प्रसार करें और सभी की, अंतिम व्यक्ति की भी दशा को सुधारने के लिए विविध उपाय खोजें – तो क्या अच्छा समय नहीं लाया जा सकेगा ? एक राष्ट्र के रूप में हम अपना स्वत्व खो चुके है और यही भारत में व्याप्त सारी बुराइयों की जड़ है. हमें भारत को उसका खोया हुआ स्वत्व लौटाना होगा और जनसामान्य को ऊपर उठाना होगा .” (स्वामी रामकृष्णानन्द को 19 मार्च 1894 में लिखित पत्र से)

अपने जीवन का लक्ष्य स्वामी विवेकानन्द को इसी शिला पर प्राप्त हुआ. उस कार्य की दिशा में भारत का खोया हुआ गौरव उसे पुनः प्राप्त कराने हेतु वे अमरीका गए – और शिकागो के सर्व धर्म परिषद् में 11 सितम्बर 1893 को “Sisters & Brothers of America” इस संबोधन से पूरे विश्व को जीत लिया. हिन्दू धर्म पर उनके व्याख्यान के पश्चात तो वहां चर्चा शुरू हुई कि “हमें (अमरीका वासियों को) भारत में ईसाई धर्मगुरु भेजने की कोई आवश्यकता नहीं है; हमें भारत से धर्म सीखना होगा.” और भारत के इतिहास ने करवट ले ली थी, जिसका बीज था – स्वामी विवेकानन्द के शिला पर किया गया ध्यान. इसलिए उसी शिला पर स्वामी जी के सम्मान में भव्य स्मारक निर्माण की योजना बनी.

योजना बनाना आसान है, पर उसे प्रत्यक्ष में उतारना कठिन. कन्याकुमारी के ईसाई समुदाय के कुछ लोग विरोध में हिंसक आन्दोलन करने लगे, और वहां धारा 144 लगा दी गयी. मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम शिला पर कुछ भी बनाने के विरोध में थे. भारत के पर्यावरण मंत्री हुमायूँ कबीर भी विरोध में थे. इसी समय विरोधियों को नहीं तो उनके विरोध को खत्म करने वाले कर्मकुशल संगठक एकनाथजी रानडे के मजबूत कधों पर कार्य का दायित्व आया. परिणामत : 15×15 चौ. फीट के छोटा से स्मारक की जगह केवल मुख्य सभा मंडप ही 130 x 56 चौ. फीट बन गया और एक भव्य दिव्य स्मारक अस्तित्व में आया.

एकनाथ जी ने दिल्ली जाकर उस समय दिसंबर 1963 में दिल्ली में उपस्थित सभी 323 सांसदों (जो अलग अलग पार्टी के थे) के हस्ताक्षर शिला स्मारक के पक्ष में एकत्रित किये. भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा एकमेव उदाहरण होगा कि जब कोई युद्ध या किसी के मृत्यु पर शोक सन्देश के अलावा किसी प्रस्ताव पर सभी सांसदों का एकमत हुआ होगा.

स्मारक के शिल्पी किसी भी महाविद्यालय से पढ़े हुए आर्किटेक्ट या इंजिनीयर नहीं थे, ये और विशेष बात है. एस.के. आचारी शिल्पवेद (4 उपवेदों में से एक) के गहन अभ्यासक थे. तमिल और संस्कृत, ये दो ही भाषाएँ उन्हें आती थीं. एकनाथ जी ने उन्हें भारत के विभिन्न शिल्पों का अध्ययन करने भेजा और उसके पश्चात विविध शिल्प पद्धतियों का सम्मिलन विवेकानन्द शिला स्मारक में उन्होंने किया.

इतना बड़ा स्मारक बनाना है तो उसके लिए धन की आवश्यकता भी बड़ी ही होती है. एकनाथ जी का दृढ़ संकल्प और जबरदस्त कार्य कुशलता, संगठन कौशल्य जानकर कुछ बड़े उद्योगपति पूरा खर्च वहन करने तैयार थे, पर एकनाथ जी केवल उन पर निर्भर रहना नहीं चाहते थे. उन्हें समूचे राष्ट्र का योगदान अपेक्षित था. इसलिए ऐसी योजना बनायी कि जिसमें भारत का एक प्रतिशत वयस्क प्रत्येक कम से कम 1 रुपये का योगदान दे. और इस प्रकार से 30,000 से अधिक भारतीयों से 85,000/- रुपये एकत्रित किये. समस्त राज्य सरकारों ने भी एक-एक लाख रुपये का योगदान दिया. सबसे पहला योगदान स्वामी चिन्मयानन्द जी ने 10,000 रुपये का दिया था. उनके आशीर्वाद से शुरू होकर कुल 1,35,000 रुपये एकत्रित हुए और सही अर्थ में यह राष्ट्रीय स्मारक बना.

अनुमति मिलने के बाद केवल 6 वर्षों में यह स्मारक बन कर पूर्ण हुआ, यह भी अपने आप में एक विश्व विक्रम है. इसमें प्रत्यक्ष स्मारक निर्माण के कार्य में औसतन 600 कामगार प्रतिदिन कार्यरत थे. ऐसा भी समय आया कि पैसे न होने के कारण उन्हें वेतन न दे सकें, फिर भी केवल भात (चावल) खाकर उन्होंने काम किया. ऐसे ह्रदय से काम करने वाले कामगार इस कार्य में जुटें थे. बाद में जब पैसे (दान) की व्यवस्था हो गयी, तब एकनाथ जी ने उनका वेतन बढ़ा दिया.

इसका मानचित्र निश्चित करते समय कांची कामकोटी के परमाचार्य – शंकराचार्य श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती जी ने बताया कि यह मंदिर नहीं है तो एक महान व्यक्ति का स्मारक है. इसलिए मंदिर से अलग इसकी रचना होगी और उन्होंने स्वयं मानचित्र में आवश्यक परिवर्तन किये.

स्थापत्यशास्त्र का उत्तम नमूना है यह स्मारक. स्मारक से दक्षिण ध्रुव तक पानी ही पानी है और उत्तर ध्रुव तक जमीन ही जमीन है. हिमालय सहित भारत के सभी पर्वतों से उद्गम होने वाली सभी नदियों का जल तीनों सागरों के माध्यम से वहां एकत्रित होता है. सागर से होने वाला सूर्योदय और सागर में ही होने वाला सूर्यास्त से देख सकते हैं.

एकनाथ जी स्पष्ट थे – स्वामी जी ने ध्यान किया और उसके पश्चात उन्हें जीवन ध्येय मिला जो पूर्ण करने वे उठ खड़े हुए और अपना कदम उस ध्येयमार्ग पर आगे बढ़ाया. इसी आविर्भाव में वह मूर्ती है. स्मारक देखने आने वाले दर्शकों को स्वामी जी की उस भव्य तेजस्वी मूर्ती से उनके दिखाए हुए ध्येय मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है.

एक विशेषता यह है कि विवेकानन्द शिला स्मारक का उद्घाटन समारोह भी 2 महीनों तक चला था. प्रत्येक राज्य को 5 दिनों का समय था, जिसमें उस राज्य से लोग आकर कार्यक्रम करते थे. 02 सितम्बर 1970 को यह स्मारक राष्ट्रार्पण हुआ. केवल पत्थरों का स्मारक की नहीं तो इसके बाद विवेकानन्द केन्द्र के रूप में स्वामी विवेकानन्द का जिवंत स्मारक भी स्थापन हुआ और स्वामी विवेकानन्द के आदर्शों पर भारत माता को उसके जगद्गुरू के स्थान पर पुनःस्थापित करने हेतु विविध उपक्रमों के माध्यम से भारत भर में कार्यरत है .

(लेखिका विवेकानन्द केन्द्र जीवनव्रती कार्यकर्ता हैं, तथा हरियाणा व पंजाब प्रांत संगठक हैं.)

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