04 नवंबर / जन्मदिवस – सह्याद्रि का शेर वासुदेव बलवंत फड़के

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नई दिल्ली (विस्नके) : घटना वर्ष 1870 की है. एक युवक तेजी से अपने गांव की ओर भागा जा रहा था. उसके मुंह से मां-मां….शब्द निकल रहे थे, पर दुर्भाग्य कि उसे मां के दर्शन नहीं हो सके. उसका मन रो उठा. लानत है ऐसी नौकरी पर, जो उसे अपनी मां के अन्तिम दर्शन के लिए भी छुट्टी न मिल सकी. वह युवक था वासुदेव बलवन्त फड़के. लोगों के बहुत समझाने पर वह शान्त हुआ, पर मां के वार्षिक श्राद्ध के समय फिर यही तमाशा हुआ और उसे अवकाश नहीं मिला. अब तो उसका मन विद्रोह कर उठा. वासुदेव का जन्म चार नवम्बर, 1845 को ग्राम शिरढोण (पुणे) में हुआ था. उनके पूर्वज शिवाजी की सेना में किलेदार थे, पर इन दिनों वे सब किले अंग्रेजों के अधीन थे.

छोटी अवस्था में ही वासुदेव का विवाह हो गया था. शिक्षा पूर्णकर उन्हें सरकारी नौकरी मिल गयी, पर स्वाभिमानी होने के कारण वे कहीं लम्बे समय तक टिकते नहीं थे. महादेव गोविन्द रानडे तथा गणेश वासुदेव जोशी जैसे देशभक्तों के सम्पर्क में आकर फड़के ने ‘स्वदेशी’ का व्रत लिया और पुणे में जोशीले भाषण देने लगे. वर्ष 1876-77 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल और महामारी का प्रकोप हुआ. शासन की उदासी देखकर उनका मन व्यग्र हो उठा. अब शान्त बैठना असम्भव था. उन्होंने पुणे के युवकों को एकत्र किया और उन्हें सह्याद्रि की पहाड़ियों पर छापामार युद्ध का अभ्यास कराने लगे. हाथ में अन्न लेकर ये युवक दत्तात्रेय भगवान की मूर्ति के सम्मुख स्वतन्त्रता की प्रतिज्ञा लेते थे.

वासुदेव के कार्य की तथाकथित बड़े लोगों ने उपेक्षा की, पर पिछड़ी जाति के युवक उनके साथ समर्पित भाव से जुड़ गये. ये लोग पहले शिवाजी के दुर्गों के रक्षक होते थे, पर अब खाली होने के कारण चोरी-चकारी करने लगे थे. मजबूत टोली बन जाने के बाद फड़के एक दिन अचानक घर पहुंचे और पत्नी को अपने लक्ष्य के बारे में बताकर उससे सदा के लिए विदा ले ली. स्वराज्य के लिए पहली आवश्यकता शस्त्रों की थी. अतः वासुदेव ने सेठों और जमीदारों के घर पर धावा मारकर धन लूट लिया. वे कहते थे कि हम डाकू नहीं हैं. जैसे ही स्वराज्य प्राप्त होगा, तुम्हें यह धन ब्याज सहित लौटा देंगे. कुछ समय में ही उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी. लोग उन्हें शिवाजी का अवतार मानने लगे, पर इन गतिविधियों से शासन चौकन्ना हो गये. उसने मेजर डेनियल को फड़के को पकड़ने का काम सौंपा.

डेनियल ने फड़के को पकड़वाने वाले को 4,000 रूपए का पुरस्कार घोषित किया. अगले दिन फड़के ने उसका सिर काटने वाले को 5,000 रूपए देने की घोषणा की. एक बार पुलिस ने उन्हें जंगल में घेर लिया, पर वे बच निकले. अब वे आन्ध्र की ओर निकल गये. वहां भी उन्होंने लोगों को संगठित किया, पर डेनियल उनका पीछा करता रहा और अन्ततः वे पकड़ लिये गये. उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर अंदमान भेज दिया गया. मातृभूमि की कुछ मिट्टी अपने साथ लेकर वे जहाज पर बैठ गये. जेल में अमानवीय उत्पीड़न के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. एक रात वे दीवार फांदकर भाग निकले, पर पुलिस ने उन्हें फिर पकड़ लिया. अब उन पर भीषण अत्याचार होने लगे. उन्हें क्षय रोग हो गया, पर शासन ने दवा का प्रबन्ध नहीं किया. 17 फरवरी, 1883 को इस वीर ने शरीर छोड़ दिया. मृत्यु के समय उनके हाथ में एक पुड़िया मिली, जिसमें भारत भूमि की पावन मिट्टी थी.

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