कांग्रेस ने सत्ता के लिए फिर धारण किया परिवारवाद का चोला, प्रियंका गांधी को मैदान में उतार करना चाहती है चुनावी वैतरणी पार

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मतदाताओं को अब चेहरों, परिवार, जाति, धर्म के आधार पर बरगलाना आसान नहीं है। ये मुद्दे चुनावों में उल्टे साबित हुए हैं और कांग्रेस अभी तक इनको छोड़ने को तैयार नजर नहीं आती। यदि कांग्रेस को राज्यों और देश के विकास पर भरोसा होता तो प्रियंका गांधी को चुनावी तुरूप की चाल की तरह नहीं चला जाता। इसके बावजूद कि प्रियंका का कांग्रेस में रत्तीभर भी योगदान नहीं रहा है, सिवाय इसके कि वे गांधी परिवार से हैं और पार्टी अध्यक्ष राहुल की बड़ी बहन हैं।

आखिर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। कांग्रेस अपने खोल से बाहर नहीं निकल पाई। सत्ता के लिए वापस परिवारवाद का चोला धारण कर लिया। प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश का महासचिव नियुक्त कर दिया। राहुल गांधी को लगता है कि प्रियंका की छवि के सहारे आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की वैतरणी पार लग जाएगी। कांग्रेस को संगठन में मौजूदा किसी वरिष्ठ पदाधिकारी पर भरोसा नहीं है। कांग्रेस में पदाधिकारियों के लिए वही स्थान है, जो हाईकमान तय कर दे। यही कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र बचा है। यह सिर्फ गांधी परिवार के इर्द−गिर्द ही घूमता है। बाकी पदाधिकारी भी इसी की परिक्रमा करने को मजबूर हैं। सत्ता के लालच से चिपके किसी भी पदाधिकारी में इतना साहस नहीं है कि आंतरिक लोकतंत्र की आवाज बुलंद कर सके।

कांग्रेस ने लंबे अर्से तक केंद्र और राज्यों में शासन किया है। इस अवधि में कांग्रेस देश के सामने कोई आदर्श या दशा-दिशा देने के बजाए आंतरिक कलह, गुटबाजी और भ्रष्टाचार के आरोपों से ही घिरी रही। इसी का फायदा भाजपा ने उठाया। विगत लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस के परिवारवाद और भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाया। केंद्र ही नहीं देश के लगभग सभी राज्यों से कांग्रेस का सफाया हो गया। कांग्रेस ने केंद्र और राज्यों में मिली पराजयों के बाद आत्मविश्लेषण करने के बजाए उल्टी गंगा ही बहाने का काम किया है।

हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में तीन राज्यों में विजयी हुई कांग्रेस ने गलतफहमी पाल ली है कि कांग्रेस अपने सिद्धान्तों और संघर्षों के कारण चुनाव जीती है। जबकि सच्चाई यह है कि इन राज्यों में भाजपा कुशासन से मतदाताओं ने मुक्ति पाई है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मतदाताओं के पास भाजपा के प्रति गहरी नाराजगी का इजहार करने का कांग्रेस के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। यदि इन राज्यों में तीसरा मोर्चा मजबूत होता, तो चुनावी तस्वीर और परिणाम दूसरे ही होते। मतदाताओं ने मजबूत विकल्प के अभाव में मजबूरी में कांग्रेस को चुना है। इस पर कांग्रेस अपनी पीठ थपथपाने में लगी हुई है।

आश्चर्य यह है कि कांग्रेस को आगामी लोकसभा चुनाव में इन तीनों राज्यों को आदर्श के तौर पर देश के सामने पेश करने का भरोसा नहीं है। इसके विपरीत प्रियंका गांधी के चेहरे पर भरोसा जताया गया है। इसके विपरीत नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लड़े गए विगत लोकसभा चुनाव में मोदी ने गुजरात को आदर्श राज्य के तौर पर पेश करके सत्ता हथियाई थी। मोदी देश के युवाओं को यह विश्वास दिलाने में कामयाब हो गए कि देश का विकास गुजरात मॉडल की तरह किया जाएगा। हालांकि विगत पांच वर्षों में यह दावा पूरी तरह परवान नहीं चढ़ सका। इसकी कीमत भी भाजपा ने उप चुनावों और विधानसभा चुनावों में चुकाई। जबकि कांग्रेस को विकास के बूते ऐसे किसी मॉडल से सत्ता में आने का भरोसा नहीं है।

कांग्रेस में परिवारवाद की मजबूत होती जड़ों के बीच के यदि सोनिया गांधी अपनी महत्वकांक्षाओं को दबाकर प्रधानमंत्री नहीं बन सकीं तो इसका कारण कांग्रेस नहीं बल्कि भाजपा रही। जिसने पूरे देश में सोनिया के इटली मूल की होने का प्रचार−प्रसार करके कांग्रेस को बैकफुट पर ला दिया। मजबूरी में सोनिया को अपने कदम पीछे हटाने पड़े। परिवारवाद से अलग यदि कांग्रेस ने कोई बड़ा उदाहरण पेश भी किया तो इतना कमजोर कि केंद्र से सत्ता जाने के बाद भी अभी तक उस पर उंगलियां उठ रही हैं। मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना जरूर दिया किन्तु पर्दे के पीछे से उसकी डोर थामे रही। सिंह पर हाल ही में बनी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म इसी का उदाहरण है। जिस पर कांग्रेस को तरीके से सफाई तक नहीं सूझ रही है।
कांग्रेस के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि आखिर प्रियंका को पार्टी महासचिव जैसा महत्वपूर्ण ओहदा क्यों दिया गया है। प्रियंका ने अभी तक पार्टी में क्या योगदान दिया है सिवाय इसके कि महत्वपूर्ण मसलों पर राहुल संगठन के अन्य वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर बार−बार उनका मुंह ताकते रहे हैं। कांग्रेस ने पिछले चुनावों की पराजय से कोई सबक नहीं सीखा। इसके विपरीत मतदाताओं की समझ को कमजोर समझने की कोशिश की है। जबकि मतदाताओं ने हमेशा केवल वायदों और चेहरों के सहारे सत्ता हासिल करने के कांग्रेस और भाजपा के प्रयासों को तगड़ा झटका दिया है। विधान सभा चुनाव परिणाम इसका उदाहरण हैं।
भाजपा ने इन चुनावों में राम मंदिर, हनुमान, गाय और गांधी परिवार को मुद्दा बनाने में कोई कोर−कसर बाकी नहीं रखी। मतदाताओं को यह सब इसलिए पसंद नहीं आया कि केंद्र और राज्यों में सत्ता में होने के बाद भी भाजपा कांग्रेस को ही मुद्दा बनाए रही। पांच सालों में किए गए विकास का लेखा−जोखा और किसी नए मॉडल की बजाए विवादित मुद्दों को तरजीह देने को मतदाताओं ने पूरी तरह नकार दिया। भाजपा को सत्ता गंवानी पड़ी। इससे भी कांग्रेस ने कुछ नहीं सीखा। मतदाताओं को अब चेहरों, परिवार, जाति, धर्म के आधार पर बरगलाना आसान नहीं है। ये मुद्दे चुनावों में उल्टे साबित हुए हैं और कांग्रेस अभी तक इनको छोड़ने को तैयार नजर नहीं आती। यदि कांग्रेस को राज्यों और देश के विकास पर भरोसा होता तो प्रियंका गांधी को चुनावी तुरूप की चाल की तरह नहीं चला जाता। इसके बावजूद कि प्रियंका का कांग्रेस में रत्तीभर भी योगदान नहीं रहा है, सिवाय इसके कि वे गांधी परिवार से हैं और पार्टी अध्यक्ष राहुल की बड़ी बहन हैं।
योगेन्द्र योगी

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