सिद्ध पुरातत्ववेत्ता और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक (उत्तर) श्री के.के. मुहम्मद जी 1978 में डॉ. बी.बी. लाल की अगुआई वाली उस टीम के सदस्य थे, जिसने अयोध्या में उत्खनन किया था.
श्री मुहम्मद साक्ष्यों के आधार पर पुरजोर तरीके से कहते आ रहे हैं कि अयोध्या में विवादित ढांचा हिन्दू मंदिरों के अवशेष पर खड़ा किया गया. उन्होंने अपनी किताब में भी इसका उल्लेख किया है.
केरल के कालीकट में जन्मे श्री मुहम्मद ने अपने पेशेवर जीवन में 300 से अधिक मंदिरों का जीर्णोद्धार और संरक्षण किया है. उनसे बातचीत के प्रमुख अंश –
आप पुरातत्ववेत्ता हैं और अयोध्या मामले से जुड़े रहे हैं. यह विवाद इतना गंभीर कैसे हो गया? बातचीत के जरिये सर्वसम्मति से इस मुद्दे को मैत्रीपूर्ण तरीके से कैसे सुलझाया जा सकता है?
यह एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है. मुसलमान नेताओं ने भी इस मुद्दे पर ठीक तरह से नेतृत्व नहीं किया. वे वामपंथी इतिहासकारों के हाथों में चले गए, इसलिए मामला पेचीदा हो गया. अन्यथा इस मामले का हल निकालने के लिए लोग तो तैयार थे. अयोध्या में पहली बार खुदाई के बाद मुसलमान अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार भी हो गए थे. लेकिन इरफान हबीब जैसे वामपंथी इतिहासकारों ने यह कह-कह कर मुसलमानों को बरगलाया कि इसमें कुछ नहीं है, यहां कुछ नहीं मिलेगा. इसी कारण दोबारा खुदाई करनी पड़ी. लिहाजा अब इस मुद्दे को सुलझाने के लिए उन्हें वापस आने में मुश्किल हो रही है. खुदाई के दौरान जब मैं अयोध्या में था, तो मैंने देखा कि श्रीराम की एक झलक पाने के लिए कड़ाके की ठंड में भी देश के विभिन्न हिस्सों से श्रद्धालु नंगे पैर मंदिर परिसर में आते थे. हमें उनकी भावनाओं और संवेदनाओं को ध्यान में रखना चाहिए. मुसलमानों को पाकिस्तान नामक इस्लामी राज्य देने के बाद भारत स्वतंत्र राष्ट्र बना. भारत अभी भी हिन्दू बहुल आबादी के कारण ही पंथनिरपेक्ष है. यदि मुसलमानों की आबादी अधिक होती तो यह पंथनिरपेक्ष देश नहीं होता. मुसलमान इस तथ्य को जरूर समझें. मैं हमेशा मुसलमानों से कहता हूं कि उनके लिए जितना मक्का और मदीना महत्वपूर्ण है, उतना ही आम हिन्दू के लिए अयोध्या महत्वपूर्ण है. इसलिए मुसलमानों को अपना दावा छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इसका पैगम्बर हजरत मुहम्मद से संबंध नहीं है. अगर उनसे संबंध होता तो मैं भी उनके साथ खड़ा होता. अगर इस स्थान का हजरत निजामुद्दीन औलिया से भी संबंध होता, तब भी मैं उनके साथ खड़ा हो जाता. लेकिन उनसे जो गलती हो गई उसे दोहराना नहीं चाहिए. लिहाजा मुस्लिम समाज को इस पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए. ऐसा करने से मुसलमानों से जुड़े दूसरे जितने भी मुद्दे हैं, वे भी हल हो जाएंगे. इसके लिए उन्हें आगे आने की जरूरत नहीं है, हिन्दू खुद आगे आकर इनका हल निकालेंगे. इसके लिए मुसलमानों को तैयार होना चाहिए. मैंने अपनी किताब के एक अध्याय में भी इस मुद्दे का जिक्र किया है. इस विवाद को खत्म करना चाहिए. देशहित में ही नहीं, बल्कि मुसलमानों के हित में भी यह बहुत जरूरी है.
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत से बाहर आपसी सहमति से अयोध्या विवाद का समाधान निकालने की सलाह दी है. इसे आप कैसे देखते हैं?
इसे हमें स्वर्णिम अवसर के रूप में देखना चाहिए. इससे मुझे बहुत उम्मीद बंधी है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने गारंटी दी है कि वह पहल करेगा. हिन्दू और मुसलमान वार्ता प्रक्रिया के जरिये हमेशा के लिए इस मुद्दे को सुलझा सकते हैं.
उत्खनन टीम का सदस्य होने के नाते आपको ऐसे कौन से प्रमाण मिले जिससे स्थापित होता है कि अयोध्या में विवादित ढांचे के नीचे मंदिर था?
राष्ट्रीय स्तर पर भूमि स्वामित्व (अयोध्या मुद्दा) से जुड़ा मुद्दा 1990 के दशक के शुरुआत में उभरा. इससे काफी पहले डॉ. बी.बी. लाल की अगुआई में पुरातत्ववेत्ताओं की एक टीम ने वहां खुदाई की थी. मैं भी उस टीम का हिस्सा था. उत्खनन में हमें ईंट से बने मंदिर के स्तंभों की नींव का पता चला. जब हमने उस स्थल की जांच की तो पता चला कि विवादित ढांचे की दीवारें मंदिर के स्तंभों पर बनी हुई हैं. ये स्तंभ काले बैसाल्ट पत्थरों से बने हुए हैं. उनके तल पर ‘पूर्ण कलशम्’ (गुंबद) खुदे हुए हैं. इस तरह की नक्काशी आमतौर पर 11-12वीं सदी के मंदिरों में दिखती है. हमने ऐसे 14 स्तंभों का पता लगाया. हम अयोध्या में दो महीने तक रहे. हमने ढांचे के पीछे और अन्य दो हिस्सों की भी खुदाई की जिसमें पहले की ही तरह बैसाल्ट पत्थर वाले स्तंभों के नीचे ईंट से बने प्लेटफॉर्म (आधार) मिले. इस प्रमाण के आधार पर मैंने कहा कि वहां कोई मंदिर था.
1978 के बाद भी कई बार खुदाई की गई. उसमें क्या-क्या प्रमाण मिले?
बाद में भी मंदिर के कई अवशेष मिले हैं. हमारी धारणा को मजबूती देने वाले कई अन्य पुरातात्विक साक्ष्य कारसेवा के दौरान ढांचा गिराए जाने के बाद मिले थे. इनमें सबसे महत्वपूर्ण विष्णु हरि की पत्थर की पट्टिका थी. इस पट्टिका पर लिखा है कि मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है. श्रीराम विष्णु के अवतार हैं, जिन्होंने बाली और दस सिरों वाले (रावण) को मारा. 1992 में डॉ. वाई.डी. शर्मा और डॉ. के.टी. श्रीवास्तव ने एक शोध किया था, जिसमें उन्हें वैष्णव और शिव-पार्वती की मूर्तियां मिलीं, जो कुषाण काल (100-300 ई.) की हैं. 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर खुदाई में मंदिर के 50 से अधिक स्तंभों के अवशेषों का पता चला. अभिषेक जल (देव प्रतिमा पर डाला जाने वाला जल) की निकासी ऐसी संरचनाएं मिलीं जो मंदिरों की विशेषता हैं, जिन्हें मस्जिदों और सामान्य घरों सहित कहीं भी नहीं देखा जा सकता है. इसके अलावा, उत्तर प्रदेश पुरातात्विक सर्वेक्षण के निदेशक डॉ. रागेश तिवारी द्वारा पेश एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मंदिर के 263 अवशेष गुप्त काल के हैं जो विवादित ढांचे के आसपास पाए गए हैं.
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने जोर देकर कहा था कि उत्खनन के दौरान इस विवाद में शामिल किसी भी पक्ष के साथ भेद-भाव नहीं होना चाहिए. उत्खनन टीम में कुल 131 सदस्य थे, जिनमें 52 मुसलमान थे. इसके अलावा, बाबरी समिति ने विशेषज्ञों की जो सूची दी थी, उन्हें भी इस कार्य में शामिल किया गया था और मुंसिफ तथा जज ने बारीकी से पूरी प्रक्रिया की निगरानी की थी. इसे अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष बनाने के लिए और क्या किया जा सकता था? हम इन प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि वहां एक मंदिर था.
कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि आपकी टिप्पणियों और हाल के खुलासे ने फिर से बहस को जन्म दे दिया है. इसे आप किस तरह देखते हैं?
ऐतिहासिक तथ्यों को कोई भी लंबे समय तक दबाए नहीं रख सकता. 15 दिसंबर, 1990 को ठोस प्रमाण के साथ मैंने एक बयान जारी किया कि अयोध्या में एक मंदिर था. एक सरकारी अधिकारी और पुरातत्वविद् के तौर पर मैं बस एक ऐतिहासिक तथ्य कह रहा था. उससे बहुत पहले ही इस मुद्दे पर हिन्दू-मुसलमान बंट चुके थे. एक समय तो मुस्लिम संगठन इस भूमि को हिन्दुओं को सौंपने को भी तैयार थे, लेकिन वामपंथी-कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने हस्तक्षेप किया और इसे जटिल मुद्दा बना दिया ताकि इसका समाधान निकल ही न सके. प्रोफेसर इरफान हबीब के साथ वामपंथी इतिहासकारों का एक समूह कट्टरपंथी मुसलमानों की मदद से आगे आया, जो अपनी बात पर अड़े हुए थे कि इस स्थान को नहीं छोड़ना चाहिए. उस समय प्रो. हबीब आईसीएचआर के अध्यक्ष थे. उनके अलावा, एस. गोपाल, बिपिन चंद्र, प्रो. आर.एस. शर्मा और जेनएयू के अन्य वामपंथी इतिहासकार ऐतिहासिक तथ्यों और निष्कर्षों के विरोध में खड़े हो गए. उनका तर्क था कि 19वीं सदी से पहले अयोध्या में ऐसे किसी मंदिर का उल्लेख नहीं था और अयोध्या प्रमुख बौद्ध-जैन केंद्र था. इरफान हबीब के संरक्षण में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की बैठकें आईसीएचआर के परिसर में होती थीं. आईसीएचआर के तत्कालीन सदस्य सचिव डॉ. एम.जी.एस. नारायणन ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने बड़े पैमाने पर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का विरोध किया था. इसके लिए उन्हें गंभीर परिणाम भी भुगतने पड़े. वे लोग नारायणन पर बरस पड़े और उन्हें दरकिनार कर दिया. अंत में तो उनका जीवन ही खतरे में पड़ गया था.
क्या आप यह आरोप लगा रहे हैं कि वामपंथियों ने मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान को नाकाम कर दिया?
इसमें कोई शक नहीं. वामपंथियों और जेएनयू के कुछ इतिहासकारों ने ही मुद्दे को तूल दिया और यह सुनिश्चित किया कि यह अनसुलझा ही रहे.
कुछ इस्लामी संगठनों के साथ वामपंथी ही थे, जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव का विरोध किया था. कुछ लोग पंथनिरपेक्ष होने का ढोंग कर ऐसा अजीब रुख क्यों अपनाते हैं?
जैसा कि मैंने कहा, अगर वामपंथियों का दखल नहीं होता तो अयोध्या का मुद्दा बहुत पहले सुलझ गया होता. वामपंथी इतिहासकारों ने मुसलमानों से खोखले वादे किए. जब मुसलमान इस मुद्दे को सुलझाने के लिए तैयार थे, तब रामायण की ऐतिहासिक सत्यता पर सवाल उठाकर वामपंथियों ने उन्हें गुमराह किया. इससे मुसलमानों में भ्रम पैदा हो गया. उनके भावनात्मक आवेग को देखकर लगता है कि मुस्लिम लीग और ओवैसियों के मुकाबले वामपंथी ज्यादा चिंतित और संवेदनशील हैं. आम सहमति की राह में एकमात्र बाधा वही हैं. दरअसल, वामपंथी बहुसंख्यक चरमपंथियों से लड़ने का दावा करते हैं, लेकिन वास्तव में वह अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों के आगे समर्पण कर रहे हैं.
साभार – पाञ्चजन्य