लखनऊ : सपा-बसपा गठबंधन होने के कुछ दिन बाद मुलायम सिंह का अखिलेश यादव को सलाह देता एक सार्वजनिक बयान आया कि ‘बिना लड़े ही आधी सीटें गंवा दीं तुमने।’ अब वही मुलायम गठबंधन की ओर से मैनपुरी से चुनाव लड़ने जा रहे हैं। यह विडंबना है पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में दूसरे नंबर पर रही समाजवादी पार्टी की। जनाधार वापस पाने की छटपटाहट में समाजवादी पार्टी उस बहुजन समाज पार्टी के साथ खड़ी हो गई है, जिसके साथ हुई उसकी लड़ाई के किस्से मुहावरे की तरह कहे सुने जाते हैं।
खबर यह नहीं कि सपा 37 सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ेगी, बसपा 38 पर और तीन सीटों पर राष्ट्रीय लोकदल या फिर अमेठी और रायबरेली में गठबंधन ने कांग्रेस का सम्मान किया है, बल्कि खबर तो यह है कि सपा 43 सीटों पर चुनाव नहीं लड़ रही है।जिस प्रदेश में हाल फिलहाल मुलायम से बड़ा नेता नहीं हुआ, वहां उनकी पार्टी 37 सीटों पर सिमट कर चुनाव लड़ने जा रही है। प्रश्न यह कि बाहर से बहुत मजबूत दिखने वाला गठबंधन क्या जमीन पर भी उतनी ही मारक क्षमता रखेगा?
यह समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना चाहिए। सपा-बसपा के मौजूदा गठबंधन का एक कारण सपा के पारिवारिक विवाद से हुए नुकसान की भरपाई करना है। दूसरा कारण 1993 में उनके बीच हुई दोस्ती है। दुनिया जानती है कि तब दोनों ने मिलकर उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव लड़ा और सरकार बनाई। यह अधूरा सच है। सपा तब 260 सीटों पर लड़ी थी। उसने 109 सीटें जीतीं जबकि 163 पर लड़ने वाली बसपा 67 सीटें ही जीत सकी थी। उनकी सरकार कांग्रेस के समर्थन से बनी थी। भाजपा तब अकेले 177 सीटें जीत लाई थी। 1993 का उदाहरण ठीक है, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि तब भी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ही थी। सपा- बसपा सरकार अधिक न चली और दो जून 1995 को कुख्यात ‘गेस्ट हाउस कांड’ हो गया।
मोदी को रोकने के लिए सपा की आतुरता का यह एक बड़ा प्रमाण है कि वह इस बार बसपा से एक सीट कम लेकर मैदान में जा रही है। वैसे गठबंधन सपा के लिए नया अनुभव नहीं। खुद मुलायम सिंह 1996 में रक्षा मंत्री ऐसी ही सरकार में बने थे। यह सही है कि 1993 से हालात बदले हैं पर ऐसा दोनों पक्षों के लिए हुआ है। 36 वर्ष पहले सपा बसपा की मित्रता को सोशल इंजीनियरिंग का चमत्कार माना गया था। दोनों दल तब नए सिक्के जैसे थे। उन्होंने तब तक सरकार नहीं चलाई थी, लिहाजा उनके बारे में सही गलत कैसी भी धारणा नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद वे बहुमत से पीछे रह गए थे। अब मुट्ठी खुल चुकी है। अब मतदाता सपा-बसपा और भाजपा तीनों की सरकारें देख चुका है। इसलिए यह सवाल स्वाभाविक है कि यदि 1993 में सपा- बसपा मिलकर भी सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन सके तो 2019 में क्या वे यह कर सकेंगे?
जाटव-यादव का सामाजिक समीकरण राजनीति की निष्ठुर गलियों में कितना प्रभावी होगा, यह देखने वाली बात होगी। 2017 के उप्र विधानसभा चुनाव में भी राहुल-अखिलेश का शोर मचा था पर मतपेटियों में कमल खिला। अमेठी, रायबरेली, सहारनपुर, कानपुर, उन्नाव, मुरादाबाद, बाराबंकी, कुशीनगर, झांसी जैसे कुछ संसदीय क्षेत्रों को छोड़ दें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि अधिकतर प्रदेश में सीधी लड़ाई भाजपा और गठबंधन के बीच ही होनी है। किसी पार्टी के पक्ष में लहर न चल रही हो तो बहुत अच्छा चुनाव लड़ने वाले दल से भी सामान्य स्थितियों में आधी सीटें जीतने की ही उम्मीद की जाती है। इस हिसाब से सपा बहुत अच्छा प्रदर्शन करे तो भी 16-17 सीटों पर जाकर थम सकती है। बसपा के साथ मिलकर उसकी ताकत बेशक अधिक दिखेगी लेकिन अकेले नहीं। सपा समर्थकों के लिए यह भी चिंता की बात है कि उसके पास लखनऊ, बनारस और कानपुर जैसी खालिस शहरी सीटें आई हैं। इसमें भी संदेह नहीं कि शिवपाल यादव सपा के विपक्ष में एक बड़ा कारक बनने जा रहे हैं।