दिल्ली। 17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में मतदाताओं ने प्रचंड बहुमत के साथ देश की बागडोर फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में सौंप दी। भाजपा ने इस बार 2014 से भी बड़ी और ऐतिहासिक जीत दर्ज की। अब देश की नजर शपथग्रहण से लेकर ‘मोदी 2.0’ के कैबिनेट गठन पर है। भाजपा ने देश की 542 में से 303’ सीटों पर जीत दर्ज की। उसके सहयोगी दलों का आंकड़ा जोड़ें तो कुल 352’ सीटों पर एनडीए काबिज हुई है। वहीं, दूसरी ओर कांग्रेस को महज 52 सीटों पर जीत हासिल हुई है।
ऐसे में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को एक बार फिर लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा हासिल नहीं हो पाएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी लोकसभा में 10 फीसदी सीट(55) पाने में नाकाम रही है। साथ ही राहुल गांधी को लीडर ऑफ अपोजीशन (एलओपी) का पद मिलने की संभावना नहीं दिख रही है। एलओपी के पद के लिए पार्टी को 543 में से 55 सीटों को जीतना जरूरी होता है। जबकि कांग्रेस महज 52 सीट ही पा सकी है, अभी भी इस पद को पाने के लिए उसके पास तीन सीटों की कमी है।
2014 में भी रहा था यही हाल
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन जब 2014 में सत्ता में आया था, उस वक्त उसने कांग्रेस को एलओपी का पद देने से मना कर दिया था। ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस ने उस वक्त महज 44 सीट जीती थीं और ये अपेक्षित मानदंडों के मुताबिक नहीं था।
एलओपी केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और लोकपाल जैसे निकायों में महत्वपूर्ण नियुक्तियों के लिए चयन पैनल का हिस्सा होता है। इसके अलावा ये सीबीआई निदेशक के चयन के पैनल का भी हिस्सा होता है।
कांग्रेस ने ये मुद्दा स्पीकर सुमित्रा महाजन के सामने कई बार उठाया और कहा कि उसे ये पद मिलना चाहिए क्योंकि वह विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन उन्होंने भी पिछले उदाहरणों और अटॉर्नी जनरल की राय का हवाला देते हुए इनकार कर दिया। हालांकि पार्टी ने चयन पैनल में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को स्वीकार करने की बात मान ली लेकिन उन्हें एलओपी का पद देने से इनकार कर दिया गया।
1985 में भी थी यही कहानी
इससे पहले भी ऐसी स्थिति आ चुकी है जब किसी विपक्ष को एलओपी का पद नहीं मिला था। साल 1985 में तत्कालीन लोकसभा स्पीकर बलराम जाखर ने तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) को एलओपी का पद देने से इनकार कर दिया था। टीडीपी उस वक्त कांग्रेस के बाद देश की सबसे बड़ी पार्टी थी।
हालांकि कांग्रेस अब अलग से चुनाव परिणाम पर विचार-विमर्श करेगी। पार्टी के बड़े फैसले लेने वाली कमिटि, कांग्रेस कार्यकारिणी समिति (सीडब्लूसी) भविष्य की योजनाओं पर विचार के लिए शनिवार को बैठक करेगी।
राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में हार को स्वीकार कर लिया है। अब माना जा रहा है कि वह सीडब्लूसी की बैठक से खुद को अलग कर सकते हैं। ठीक ऐसा ही महासचिव और राज्यों के प्रभारी की उनकी पूरी टीम भी कर सकती है।
2014 में भी तत्कालीन कांग्रेस प्रमुख सोनियां गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की थी लेकिन सीडब्लूसी ने इसे अस्वीकार कर दिया था। माना जा रहा है कि शनिवार की बैठक में एक बार फिर ऐसा ही कुछ होगा।
सीडब्लूसी की बैठक में पार्टी के न्याय के वादे की कमियों पर भी समीक्षा की जाएगी। जिसके तहत पार्टी ने देश के 20 फीसदी गरीबों को न्यूनतम आय योजना के तहत सालाना 72 हजार रुपये देने का वादा किया था। लेकिन जमीनी हकीकत से ये बात सामने आई कि पार्टी की इस योजना ने लोगों पर कुछ खास प्रभाव नहीं डाला।
अब क्या कर सकते हैं राहुल?
राहुल को अमेठी से भी हार नसीब हुई है, जो कांग्रेस का गढ़ माना जाता है। जबकि केरल के वायनाड से राहुल को जीत मिली है। इस साल के अंत में चार राज्यों महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू एवं कश्मीर में चुनाव होंगे। वहीं अगले साल फरवरी में दिल्ली में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। अब राहुल गांधी के लिए इन राज्यों में जीत हासिल करना एक बड़ा टास्क होगा।
ये भी कहा जा रहा है कि राहुल राज्यों के पार्टी प्रमुखों को बदल सकते हैं। साथ ही वह राज्यों में नए महासचिव और प्रभारी की नियुक्ति भी कर सकते हैं। ऐसा कर वह लोगों को संदेश देंगे कि राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस पूरी तरह तैयार है।