93 जन्मदिन पर अभिनंदन : पिता के क्लासमेट बने अटल जी, कुछ यूं मशहूर हो गई दोनों की दोस्ती

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कानपुरः देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का आज 93 जन्मदिन है, उनका विदेश मंत्री के तौर रूप में संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी में दिया गया भाषण हो या एक मत के चलते सरकार गवां देना, वो कभी हार और राजनीति में रार नहीं मानते थे। आज अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिन है। ऐसे में अब आपको एक खास वाकया बता रहे हैं, जब अटल बिहार वाजपेयी अपने पिता के क्लासमेट बने थे।

उनका शैक्षणिक जीवन बहुत कठिन रहा
भारत रत्न अटल बिहारी का शैक्षणिक जीवन बहुत कठिन रहा है। कानपुर में राजनीति शास्त्र की पढ़ाई के लिए ग्वालियर के राजा ने उन्हें 75 रुपए की छात्रवृत्ति देकर भेजा था। वह अपने पिता के साथ एक कमरे में रहे और एक ही क्लास में बैठकर पढ़ाई की। अटल जी और उनके पिता जी डीएबी कॉलेज से एलएलबी की थी। इस दौरान उनके कई मित्र भी बने और जब भी समय मिलता तो सरसैया घाट पहुंच जाते और अपनी कवितायों की खुशबू से लोगों को सराबोर करते। कॉलेज में पिता-पुत्र की जोड़ी खूब मशहूर थी। जब भी अटल जी क्लास में नहीं आते तो प्रोफेसर पूछ बैठते, आपके साहबजादे कहां नदारद हैं, पंडित जी। तो वो तत्काल बोल पड़ते कमरे की कुंडी लगाकर आते होंगे प्रोफेसर जी।

गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ जन्म
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर 1924 को ग्वालियर के गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था। स्नातक तक की शिक्षा उन्होंने ग्वालियर से ही पूरी की। इसके बाद राजनीति शास्त्र की डिग्री के कानपुर जाने का मन बनाया, लेकिन पैसों के चलते पिता उन्हें भेजने को तैयार नहीं हुए। डीएबी कॉलेज के प्रोफेसर अनूप सिंह बताते हैं कि जब इसकी जानकारी वहां के तत्कालीन राजा जीवाजीराव सिंधिया को हुई तो उन्होंने वाजपेयी जी को छात्रवृत्ति देने का फैसला कर दिया। प्रोफेसर कुमार बताते हैं, राजा की छात्रवृत्ति लेकर कानपुर आए और डीएवी कॉलेज से लगभग 4 साल तक शिक्षा ग्रहण किया। इस दौरान अटल जी को हर माह 75 रुपए राजा भिजवाते रहे।

राजनीति शास्त्र में किया एमए 
प्रोफेसर अनूप ने बताया कि अटल बिहारी जी ने 1945-46, 1946-47 के सत्रों में यहां से राजनीति शास्त्र में एमए किया। जिसके बाद 1948 में एलएलबी में प्रवेश लिया लेकिन 1949 में संघ के काम के चलते लखनऊ जाना पड़ा और एलएलबी की पढ़ाई बीच में ही छूट गई। प्रोफेसर ने बताया कि जब वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे तो कॉलेज के नाम एक पत्र लिखा था जो साहित्यसेवी बद्रीनारायण तिवारी ने संस्थान को सौंप दिया। उस पत्र में कुछ रोचक और गौरवान्वित कर देने वाली घटनाओं का जिक्र है। जिसमें घर की माली हालात ठीक न होने और 75 रूपए की छात्रवृत्ति का भी वर्णन है।

अटल जी को तुअर की दाल और आम का आचार बहुत पसंद था
प्रोफेसर बताते हैं कि अटल जी ने पत्र में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि कानपुर में एक साल के बाद छात्रवृत्ति न लेने का फैसला लिया गया। जिसके लिए हटिया मोहाल स्थित सीएबी स्कूल में ट्यूशन देने जाते थे। यहां पर अटल जी भूगोल व उनके पिता अंग्रेजी पढ़ाते थे। हटिया निवासी रमापति त्रिपाठी ने बताया कि अटल जी के पिता ने उन्हें अंग्रेजी पढ़ाने के लिए आया करते थे। जिसके बदले हमारी माता जी उन्हें भोजन खिलाती थीं। अटल जी के पिता जी हमसे ट्युशन का पैसा नहीं लेते थे। रमापति बताते हैं कि अटल बिहारी बाजपेयी को तुअर की दाल और आम का आचार बहुत पसंद था।

साहबजादे कहकर पुकारते थे प्रोफेसर
प्रोफेसर बताते हैं अटल जी ने राजनीति शास्त्र से एमए करने के बाद यहीं पर 1948 को एलएलबी में दाखिला लिए थे। उनके साथ सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त पिता पंडित कृष्ण बिहारी लाल वाजपेयी ने भी एलएलबी करने का फैसला कर लिया। बताया कि छात्रावास में पिता-पुत्र एक ही कमरे में रहते थे। विद्यार्थियों के झुंड के झुंड उन्हें देखने आते थे। दोनों एक ही क्लास में बैठते थे। यह देख प्रोफेसरों मे चर्चा का विषय बना रहता था। कभी पिताजी देर से पहुंचते तो प्रोफेसर ठहाकों के साथ पूछते- कहिये आपके पिताजी कहां गायब हैं? और कभी अटल जी को देर हो जाती तो पिताजी से पूछा जाता आपके साहबजादे कहां नदारद हैं।

1951 में जनसंघ से जुड़े 
अटल जी ने अपने पत्र में आजादी के जश्न 15 अगस्त 1947 का भी जिक्र करते हुए लिखा है कि छात्रावास में जश्न मनाया जा रहा था, जिसमें अधूरी आजादी का दर्द उकेरते हुए कविता सुनाई। कविता सुन समारोह में शामिल आगरा विवि के पूर्व उपकुलपति लाला दीवानचंद ने उन्हें 10 रुपये इनाम दिया था। राजनीति में अटल जी ने पहला कदम अगस्त 1942 में तब रखा जब उन्हें और बड़े भाई प्रेम को भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 23 दिन के लिए गिरफ्तार किया गया। डीएवी कॉलेज के दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे और कानपुर में ही 1951 में जन संघ की स्थापना के दौरान संस्थापक सदस्य बन गये।

1955 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा 
उन्होंने पहली बार 1955 में लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार का सामना देखना पड़ा। 1957 में जन संघ ने उन्हें 3 लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया। जिसमें बलरामपुर सीट से जीत मिल सकी। 1957 से 1977 तक (जनता पार्टी की स्थापना तक) जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे। 1968 से 1973 तक वे भारतीय जनसंघ के राष्टीय अध्यक्ष पद पर आसीन रहे। 1977 से 1979 तक विदेश मंत्री रहे। 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने हालांकि यह समय कुछ ही दिनों का रहा। 1998 से 2004 तक फिर प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे।

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