उत्तराखंड में थारू जनजाति खेलती है मरी और जिंदा होली, अनूठी है परंपरा

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खटीमा: कुमाऊं की खड़ी और बैठकी होली के बारे में तो आप जानते होंगे लेकिन ऊधमसिंहनगर जिले के खटीमा में थारू जनजाति की होली के बारे में कम ही लोग जानते हैं। अपने आप में अनूठी यह होली दो हिस्सों में खेली जाती है। थारू समाज के लोग यहा जिंदा होली  और मरी होली खेलते हैं। होलिका दहन से पहले जिंदा होली और और होलिका दहन के बाद मरी होली खेली जाती है। इसको लेकर समाज में कई किंवदंतियां हैं।  

जिंदा होली  

जिंदा होली की शुरुआत उसी दिन से होती है जिस दिन से कुमाऊं की खड़ी होली के शुरू होती है। इसे खिचड़ी होली भी कहते हैं। थारू समाज की खड़ी होली में पुरुषों के साथ साथ महिलाएं भी घर-घर जाकर होली के गीत गाती हैं, साथ में नाचती हैं। थारू समाज ढोल नगाड़ों के साथ होली का गायन करता है। यह होली होलिका दहन तक मनाई जाती है।

मरी होली 

होली का दूसरा हिस्सा या मरी होली होलिका दहन के बाद मनाई जाती है। मान्यता है जिन गांवों में आपदा या बीमारियों से मौत हो जाती थी उस गांव के लोग होली का त्योहार होलिका दहन के बाद मनाना शुरू करते हैं। पूर्वजों के दौर से चली आ रही इस परंपरा को आज भी थारू समाज के लोग वैसे ही मनाते चले आ रहे हैं।

उत्तर दिशा के घरों से होती है होली की शुरुआत

थारू समाज की बहुएं भी इस दौरान मायके से विदा होकर ससुराल आ जाती हैं। फाल्गुन शुरू होते ही होली की शुरुआत उत्तर दिशा के घरों से की जाती है और दक्षिण दिशा में समापन होता है। जिस घर में होली खेली जाती है वहां गुड़ जरूर बांटा जाता है।

इन गांव में होती है जिंदा-मरी होली

भूड़, सुजिया महोलिया, उमरुखुर्द, नंदन्ना, गोसीकुआ भुडिया, कुटरी, बिगराबाग, गोहरपटिया, कुटरा, आलावृद्धि, छिनकी, श्रीपुर बिछवा, बनकटिया, उइन, बिरिया मझोला, दियां, चांदपुर, देवरी, सबोरा, रतनपुर, फुलैया, सड़ासडिय़ा, झनकट आदि गांव में जिंदा होली खेली जाती है जबकि जादोपुर, बानूसी, चांदा, सैजना, चंदेली, गुरुखुडा, कुमराह, तिगरी, उल्धन आदि गांव में मरी होली खेली जाती है।

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