बागेश्वर : चीड़ के पेड़ों की लंबी उम्र के लिए वन विभाग ने कदमताल शुरू कर दी है। चीड़ के पेड़ों से लीसा दोहन की पद्धति में सुधार किया है। बोर होल पद्धति से अब लीसा निकाला जाएगा। जिससे चीड़ के पेड़ बचेंगे और लीसा का उत्पादन भी बढ़ेगा। अलबत्ता इसबीच वन विभाग लीसा ठेकेदारों और उनके श्रमिकों को बोर होल पद्धति से लीसा दोहन का प्रशिक्षण भी दे रहा है।
जिले के लगभग 44 प्रतिशत भू-भाग में चीड़ के जंगल हैं। चीड़ के पेड़ों से लीसा निकालने पर वह खराब हो जाते हैं। जिसके कारण वह हवा और अंधड़ के कारण गिर जाते हैं। लेकिन अब वन विभाग लीसा विदोहन के लिए नई पद्धति लाया है। जिसके कारण पेड़ों को नुकसान कम होगा। जिसे बोर होल पद्धति नाम दिया गया है। इस पद्धति से लीसा निकालने के लिए चीड़ के तने को जमीन से 20 सेमी ऊपर हल्का सा छीलकर उसमें गिरमिट अथवा बरमा की मदद से तीन से चार इंच गहराई के छिद्र किए जाएंगे।
45 डिग्री के कोण पर तिरछा बनाया जाएगा। फिर छिद्र पर जरूरी रसायनों का छिड़काव कर उसमें नलकी फिट की जाएगी और इससे आने वाले लीसा को पॉलीथिन की थैलियों में एकत्रित किया जाएगा। अनुमान है कि लीसा उत्पादन बढ़ेगा और बेहतर गुणवत्ता भी मिलेगी।
राजस्व प्राप्ति का बड़ा जरिया
चीड़ से निकलने वाला लीसा (रेजिन) राजस्व प्राप्ति का बड़ा जरिया है। लीसा का उपयोग तारपीन का तेल बनाने में होता है। उत्तराखंड में वन महकमे को अकेले लीसा से सालाना डेढ़ से दो सौ करोड़ की आय होती है। चीड़ के पेड़ों से लीसा विदोहन के लिए 1960-65 में सबसे पहले जोशी वसूला तकनीक अपनाई गई, मगर इससे पेड़ों को भारी नुकसान हुआ। इसके बाद 1985 में इसे बंद कर यूरोपियन रिल पद्धति को अपनाया गया। इसमें 40 सेमी से अधिक व्यास के पेड़ों की छाल को छीलकर उसमें 30 सेमी चौड़ाई का घाव बनाया जाता है। उस पर दो मिमी की गहराई की रिल बनाई जाती है और फिर इससे लीसा मिलता है।
प्रभागीय वनाधिकारी हिमांशु बागरी का कहना है कि लीसा देहान की नई पद्धति का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। पेड़ों में बनने वाले घांव पर गर्मियों में आग भी लगती थी। जिसके कारण चीड़ के पेड़ों को भारी नुकसान रहता था। बोर होल पद्धति से चीड़ के पेड़ों को बचाया जाएगा और बेहतर उत्पादन और गुणवत्ता भी मिलेगी।