कर्णप्रयाग। चमोली जिले में नंदाकिनी नदी के किनारे शिलासमुद्र ग्लेशियर खतरे की जद में है। शिलासमुद्र के ठीक नीचे ग्लेशियर की तलहटी पर बने दो छेद और उसके आसपास आई दरारें कभी भी कहर बरपा सकती हैं। जानकारों का कहना है कि बड़ा भूकंप आने की दशा में अगर भविष्य में शिलासमुद्र ग्लेशियर फटता है तो सितेल, कनोल, घाट, नंदप्रयाग से लेकर हरिद्वार तक कई शहरों का नामोनिशान मिट सकता है।
शिलासमुद्र ग्लेशियर नंदा राजजात का 16वां पड़ाव है। धार्मिक महत्ता का प्रतीक होने के साथ पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहां पर दुर्लभ प्रकार के जीव जंतु पाए जाते हैं, जो गढ़वाल हिमालय के ईकोलॉजी सिस्टम में भी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाते हैं। शिलासमुद्र ग्लेशियर लगभग आठ किलोमीटर परिक्षेत्र में फैला है।
ग्लेशियर के ऊपरी भाग में सैकड़ों टनों के हजारों पत्थरों की भरमार है और इसकी तलहटी पर पिछले कुछ सालों से एक बड़ा गोलाकर छेद बन रहा है। 2000 और 2014 की राजजात में गए तीर्थ यात्रियों की माने तो पहले ग्लेशियर की तलहटी में बना यह छेद काफी छोटा था। वर्तमान समय में इसका आकार बड़ा हो गया है।
भविष्य में आने वाले खतरे की आहट
इतना ही नहीं पहले इस ग्लेशियर के नीचे सिर्फ एक छेद बना था, लेकिन अब पहले वाले छेद के अंदर कुछ दूरी पर दूसरा छेद भी बन गया है। इन छेदों के ऊपर और आसपास बड़ी-बड़ी दरारें पड़ी हैं। इससे भविष्य में आने वाले खतरे की आहट से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। पर्यावरण के जानकार इसे खतरे की घंटी बता रहे हैं।
उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हल्के भूंकप ग्लेशियरों के लिए खतरनाक हैं। गढ़वाल हिमालय अभी बाल्यावस्था में है और इसकी सतहें कमजोर हैं। गंगोत्री, पिंडर, नंदाकिनी और मंदाकिनी ग्लेशियरों के पिघलने में कुछ दशकों से तेजी आई है। इसका मुख्य कारण धरती के तापमान में बढ़ोतरी होना है। समय रहते हमने यदि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना और वनों का अनियोजित दोहन करना बंद नहीं किया तो परिणाम खतरनाक हो सकते हैं।
प्रोफेसर मोहन पंवार, भूगोल विभाग एचएनबी गढ़वाल विवि श्रीनगर
बाढ़ से जिले में तबाही का रहा है पुराना इतिहास
रविवार को चमोली जिले के रैणी गांव में ऋषिगंगा नदी में ग्लेशियर फटने से मची तबाही ने जिले के लोगों के जेहन में बीते सालों की बाढ़ में मची तबाही की यादें ताजा कर दी हैं। हालांकि जिले में कभी सर्दियों में ग्लेशियर फटने से बाढ़ की स्थित तो नहीं बनी, लेकिन मानसून सीजन में अतिवृष्टि एवं बादल फटने की आपदा में जानमाल के भारी नुकसान हुआ है।
वर्ष 1978 में गंगनानी और डबराणी के बीच कनोडिया गदेरे में बनी झील टूटने से आए भारी मलबे ने गंगा भागीरथी का प्रवाह अवरुद्ध कर दिया था। यहां करीब 72 घंटे तक गंगा भागीरथी का प्रवाह अवरुद्ध होने से झील बन गई थी। जिसे सेना की मदद से तोड़कर नदी का प्रवाह सामान्य किया गया था।
वर्ष 2012 में अतिवृष्टि और बादल फटने से स्वारी गाड़, हनुमानगंगा और असी गंगा में आए उफान से भारी तबाही मची थी। उस समय असी गंगा घाटी में निर्माणाधीन तीन लघु जल विद्युत परियोजनाओं का नामोनिशान मिट गया था और परियोजना निर्माण में लगे दर्जनों मजदूर भी बह गए थे। वर्ष 2013 में गंगा भागीरथी एवं यमुना नदी में आई बाढ़ ने भी तटवर्ती हिस्सों में भारी तबाही मचाई थी।
गंगोत्री घाटी में ग्लेशियर टूटने से होते रहे हैं नुकसान
वर्ष 2011 में गंगोत्री मंदिर के सामने भैरोंझाप नाले में आया ग्लेशियर गंगा भागीरथी को पार कर दूसरे छोर पर बने होटलों तक पहुंच गया था।
इससे गंगोत्री मंदिर तो बाल-बाल बच गया था, लेकिन होटल आदि को भारी क्षति पहुंची थी। वर्ष 2017 में गोमुख के ऊपरी हिस्से में नीला ताल टूटने से आए भारी मलबे ने गोमुख में गंगा भागीरथी की दिशा ही बदल दी थी। वर्तमान में भी यहां भारी मलबा जमा है।
भविष्य में आपदा की ओर इशारा कर रहा केदारताल
गंगोत्री वैली में वर्तमान में थलय सागर हिमशिखर की तलहटी में स्थित केदार ताल भी भविष्य में बड़ी आपदा की ओर इशारा कर रहा है। क्षेत्र में जाने वाले पर्वतारोहियों के अनुसार मलबा भरने से ताल का जलस्तर काफी ऊंचा हो गया है। यदि कभी यह ताल टूटा, तो इससे निकलने वाली केदारगंगा में उफान आने से गंगोत्री धाम में तबाही की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता।