चमोली । सीमांत जनपद चमोली के किरूली गांव के राजेंद्र बडवाल स्वरोजगार और स्वावलंबन की मिसाल बन रहे हैं। राजेंद्र बडवाल ने अपने पुस्तैनी रिंगाल हस्तशिल्प के स्वरोजगार में स्वावलंबन की राह तलाशी है। आज राजेंद्र न सिर्फ गांव में ग्रामीणों के हाथों को काम दिया है, बल्कि ग्रामीणों को हस्तशिल्प की नई तकनीकी से भी रूबरू कराया है। राजेंद्र की पहचान अब सिर्फ उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि शिमला, दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ आदि महानगरों तक है। रिंगाल हस्तशिल्प आज प्लास्टिक का विकल्प भी बन रहा है। राजेंद्र के साथ किरूली गांव के 15 ग्रामीण भी हस्तशिल्प का काम करते हैं। जब मांग अधिक होती हैं तो आसपास के गांवों के ग्रामीणों को भी रोजगार मिल जाता है।
किरूली गांव दशोली ब्लाक में पीपलकोटी के निकट पड़ता है। इस गांव में जाने के लिए चमोली मुख्यालय बदरीनाथ राजमार्ग होते हुए 20 किलोमीटर की सड़क मार्ग की दूरी तय कर पहुंचा जाता है। गरीब किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले 39 वर्षीय राजेंद्र बडवाल ने पीजी कालेज गोपेश्वर से एमए की डिग्री हासिल की, जिसके 2010 में राजेंद्र ने देहरादून से बीएड किया तथा शिक्षा के क्षेत्र में नौकरी की तलाश की। लेकिन, जब सरकारी नौकरी नहीं मिली तो राजेंद्र बडवाल ने अपने पुस्तैनी रिंगाल हस्तशिल्प के स्वरोजगार को अपनी आजीविका का जरिया बनाया।
राजेंद्र बडवाल ने 15 वर्ष की उम्र से ही अपने पुस्तैनी स्वरोजगार को सीखना शुरू कर दिया था। उस समय राजेंद्र के दादा कंचनी लाल व राजेंद्र के पिता दरमानी बडवाल जंगलों में होने वाली रिंगाल से कुछ दैनिक उपयोग की वस्तुओं को बनाते, फिर उन्हें बेचने के लिए ले जाते। रिंगल की हस्तशिल्प का काम राजेंद्र ने अपने पिता व दादा से सीखा। जिसमें उन्होंने रिंगाल से टोकरियां, कंडी और चटाई बनानी शुरू की।
स्कूल की छुट्टी के दौरान भी राजेंद्र में हस्तशिल्प को सीखने को लेकर उत्सुकता रहती थी। 2010 के बाद राजेंद्र ने पुराने बुजुर्गों से रिंगाल हस्तशिल्प की तमाम तकनीकियों के बारे में सीखा। जिसमें राजेंद्र ने नया अन्वेषण किया। रिंगाल में ही स्वरोजगार की चाह और राह देखी। फैंसी वस्तुओं को खुद ही बनाना सीखा और नए-नए डिजाइन भी तैयार किए। बेटे की लगन को देख कर 65 वर्षीय दरमानी बडवाल ने भी बेटे के साथ हाथ बांटा और हस्तशिल्प कला को नयी पहचान दिलाने की मुहिम में जुटे।
इन उत्पादों को कर रहे हैं तैयार
किरूली के राजेंद्र बडवाल कहते हैं कि रिंगाल के बने कलमदान, लैंप सेड, चाय ट्रे, नमकीन ट्रे, डस्टबिन, फूलदान, टोकरी, टोपी, स्ट्रैं को खास पसंद किया जा रहा है। इन सभी वस्तुओं को वह नियमित रूप से तैयार करते हैं तथा करवाते हैं। इसके साथ गंगोत्री, यमुनोत्री, बदरीनाथ, केदारनाथ, तुगनाथ, गोपीनाथ मंदिर सहित कई मंदिरों को रिंगा की हस्तशिल्प से तैयार कर चुके हैं। साथ ही उत्तराखंड के चमोली, गोपेश्वर, पीपलकोटी, कोटद्वार, देहरादून सहित हिमाचाल प्रदेश में भी रिंगाल हस्तशिल्प के मास्टर ट्रेनर के रूप में लोगों को ट्रेनिंग दे चुके हैं।
इन स्थानों पर भेज रहे हैं उत्पाद उत्तरकाशी
राजेंद्र बडवाल कहते हैं कि रिंगाल से बने उत्पादों की मांग देहरादून, कोटद्वार, दिल्ली, चंडीगढ़, मुंबई, भोपाल सहित कई शहरों से नियमित आती रहती है। इन शहरों तक वह रिंगल के उत्पादों की आपूर्ति भी कर रहे हैं। राजेंद्र बडवाल ने बताया कि इंडोनेशिया और मॉरिशस से भी रिंगाल के उत्पादों की मांग आयी थी। लेकिन, वह इन स्थानों पर पैकिंग आदि दिक्कतों के कारण उत्पाद नहीं भेज पाए।
सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्ति का विकल्प
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंगल यूज प्लास्टिक का प्रयाग न करने की अपील की है। पॉलीथिन मुक्त के लिए सरकार कई तरह के कार्यक्रम भी चला रही है। ऐसे में रिंगल से तैयार वस्तुएं काफी सार्थक सिद्ध हो सकती हैं। राजेंद्र कहते हैं उन्होंने रिंगान से बैग, फैंसी कंडियां, डस्टबीन जैसी कई वस्तुएं तैयार की हैं जो जरूरी सामान के लिए इस्तेमाल की जा रही है। इस तरह की कई वस्तुएं तैयार की जा सकती हैं, जो सिंगल यूज प्लास्टिक का विकल्प भी बनेगी।