तो क्या बीजेपी में रहकर हरक और सतपाल का सीएम बनने का सपना कभी पूरा नहीं होगा , हालात तो ऐसे ही लगते हैं

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बीजेपी के देशव्यापी विस्तार में दूसरे दलों से आए प्रमुख नेताओं की भी अहम भूमिका रही है। लेकिन, जिन राज्यों में भाजपा मजबूत है उन राज्यों में उनको पार्टी के भीतर ज्यादा अहमियत नहीं मिल पा रही है। ऐसे में इन नेताओं के भीतर बेचैनी दिख रही है। जहां 2014 में हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद नाराज सतपाल महाराज ने बीजेपी का रुख किया और 2016 में कांग्रेस में एक बड़ी टूट हुई और बड़ी संख्या में विजय बहुगुणा के नेतृत्व में हरक सिंह रावत सुबोध उनियाल सरीखे दिग्गज नेता भाजपा का दामन थामने आ गए भाजपा सत्ता में आई तो कांग्रेस से आए ज्यादातर नेताओं को मंत्री भी बनाया गया लेकिन इन नेताओं की महत्वकांक्षी तो मुख्यमंत्री की है हाल के दिनों में जब पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा हुई तो सतपाल महाराज और हरक सिंह रावत जैसे नेता नाराज हो गए उन्हें लगा की उनसे जूनियर और राजनीति में कम अनुभव वाले नेता को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन एक बात भूल गए कि भाजपा के कैडर में पुष्कर सिंह धामी अब दोनों से सीनियर हैं घटना से एक बात साफ हो जाती है की जो राज्य भाजपा के नए गढ़ के रूप में उभरे हैं, वहां बाहर से आए नेताओं को पार्टी ने अहमियत दी है, लेकिन भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मजबूत माने जाने वाले गढ़ों में पार्टी ने अपने मूल कैडर पर ही ज्यादा भरोसा दिखाया है।
उत्तराखंड: हाल में उत्तराखंड में हुए नेतृत्व परिवर्तन में भाजपा नेतृत्व में एक बार फिर अपने मूल कैडर वाले नेतृत्व को ही वरीयता दी है, हालांकि कांग्रेस से भाजपा में आए कई प्रमुख नेता प्रबल दावेदार रहे हैं। बीते सालों में भाजपा के केंद्रीय सत्ता में आने के साथ विभिन्न राज्यों से जुड़े दूसरे दलों के कई प्रमुख नेताओं ने भाजपा का दामन थामा है। भाजपा में उनको सम्मान भी मिला, लेकिन इन नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा आकार नहीं ले पाई। दरअसल भाजपा का अपना मूल कैडर इतना बड़ा है कि उसमें दूसरे दलों से आए नेताओं के लिए ज्यादा संभावनाएं नहीं बन पाती हैं।
पश्चिम बंगाल: पश्चिम बंगाल में भाजपा को खड़ा करने में मुख्य भूमिका निभाने निभाने वाले मुकुल राय भी इसी वजह से भाजपा छोड़कर वापस तृणमूल कांग्रेस में चले गए। उत्तराखंड में सतपाल महाराज सरकार में तो हैं, लेकिन राज्य में दूसरी बार हुए नेतृत्व परिवर्तन के बाद वह असहज दिखे। कांग्रेस से आए सांसद जगदंबिका पाल व रीता बहुगुणा जोशी को भी ज्यादा महत्व नहीं मिल पाया है। हालांकि, मोदी सरकार के संभावित मंत्रिमंडल विस्तार से दूसरे दलों से आए प्रमुख नेताओं को काफी उम्मीदें हैं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं।
हरियाणा: हरियाणा की राजनीति में भाजपा ने अपने कैडर पर ही भरोसा किया है। चौधरी बीरेंद्र सिंह और राव इंद्रजीत सिंह को भाजपा में सम्मान तो मिला, लेकिन राज्य की राजनीति में उनको अहम भूमिका नहीं मिल सकी है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि कि जिन राज्यों में भाजपा ने विस्तार किया है और जहां वह पूर्व में ज्यादा मजबूत नहीं थी, वहां पर दूसरे दलों के आए प्रमुख नेताओं को अहम जिम्मेदारियां भी सौंपी हैं।
असम में हेमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाना और उसके पहले सर्वानंद सोनोबाल को मुख्यमंत्री बनाना इसका बड़ा उदाहरण है। दोनों ही भाजपा के मूल कैडर से नहीं आते हैं। पश्चिम बंगाल में शुभेंदु अधिकारी को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया है। वह भी चुनाव से ठीक पहले तृणमूल कांग्रेस छोड़कर आए थे। हालांकि, उनको यह इनाम ममता बनर्जी को हराने की वजह से मिला है। इसके पहले भी भाजपा ने झारखंड में झामुमो से आए अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया था।

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