दक्षिण कोरिया के दर्शकों को भा गई टिहरी की सृष्टि की ‘एक था गांव’ फिल्म, मिला ऑडियंस च्वाइस अवॉर्ड 

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देहरादून। उत्तराखंड के टिहरी के सेमला गांव की सृष्टि लखेड़ा की फिल्म एक था गांव (वन्स अपॉन ए विलेज) दक्षिण कोरिया के लोगों को भा गई है। इस फिल्म को सियोल ईको फिल्म फेस्टिवल (दक्षिण कोरिया) में ऑडियशंस च्वाइस अवॉर्ड मिला है। उन्हें ट्रॉफी और नकद पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया है।

गौरतलब है कि एक था गांव फिल्म मामी (मुंबई एकेडमी ऑफ मूविंग इमेज) फिल्म महोत्सव की इंडिया गोल्ड श्रेणी में भी जगह बना चुकी है। सृष्टि इन दिनों ऋषिकेश में रह रही हैं।

मूल रूप से विकास खंड कीर्तिनगर के सेमला गांव की रहने वाली सृष्टि 10 साल से फिल्म लाइन के क्षेत्र में हैं। उत्तराखंड में लगातार खाली हो रहे गांवों को देखते हुए उन्होंने इसका कारण ढूंढने के लिए पावती शिवापालन के साथ (सह निर्माता) एक था गांव फिल्म बनाई। इसके लिए उन्होंने पलायन से लगभग खाली हो चुके अपने गांव का चयन किया।

दो माह पूर्व उन्होंने दक्षिण कोरिया में आयोजित होने वाले 18 सियोल ईको फिल्म फेस्टिवल (एसईएफएफ) के लिए अपनी फिल्म की प्रविष्टि भेजी। एसईएफएफ मानव एवं पर्यावरण के बीच संबंधों पर आधारित फिल्मों का महोत्सव है। 30 मई को एक था गांव सहित 10 फिल्मों का चयन अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता श्रेणी में हुआ। 3 से 9 जून तक दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में महोत्सव का आयोजन हुआ।

इस महोत्सव में सृष्टि की फिल्म ने ऑडियशंस च्वाइस अवाॅर्ड जीता। सृष्टि का कहना है कि फिल्म को कोरियाई भाषा के सब टाइटल के साथ प्रदर्शित किया गया। दर्शकों ने फिल्म की थीम, बैकग्राउंड और अभिनय को सराहते हुए पहला नंबर दिया। 

पलायन की कहानी है एक था गांव 
एक था गांव फिल्म मजबूरी में गांव छोड़ चुके लोगों की कहानी पर आधारित है। फिल्म बताती है कि गांव से जाने के बाद भी लोगों के  मन में लौटने की कशमकश चलती रहती है। फिल्म के मुख्य दो पात्र हैं। 80 वर्षीय लीला देवी और 19 वर्षीय किशोरी गोलू। लीला देवी अकेली रहती है।

इकलौती बेटी की शादी हो चुकी है। बेटी साथ में देहरादून चलने के लिए जिद करती है लेकिन लीला हर बार मना कर देती हैं। वह गांव नहीं छोड़ना चाहती हैं क्योंकि उन्हें गांव का जीवन अच्छा लगता है। हालांकि गांव का जीवन बहुत कठिन है।

वहीं दूसरी पात्र गोलू को गांव के जीवन में भविष्य नहीं दिखता है। वह भी अन्य लड़कियों की तरह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है। एक दिन ऐसी परिस्थिति आती है कि दोनों को गांव छोड़ना पड़ता है। लीला देवी अपनी बेटी के पास देहरादून चली जाती हैं जबकि गोलू उच्च शिक्षा के लिए ऋषिकेश चली जाती है। फिल्म के माध्यम से बताया गया कि अपनी जन्मभूमि को छोड़ने का कोई न कोई कारण होता है लेकिन गांव छोड़ने के बाद भी लोगों के मन में गांव लौटने की कशमकश चलती रहती है। 

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