दून वन प्रभाग की आशारोड़ी रेंज की पहल से उत्तराखंड में अब प्यासे नहीं रहेंगे बेजबान

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देहरादून। जंगल में पानी उपलब्ध हो तो उसकी सेहत बेहतर रहेगी, बेजबानों को भी गला तर करने को भटकना नहीं पड़ेगा। इसके साथ ही अग्निकाल में वनों पर आग का खतरा कम होगा। आवश्यकता, बस बूंदों को सहेजने के लिए गंभीरता से प्रयास करने की है। ऐसी ही पहल हुई है देहरादून वन प्रभाग की आशारोड़ी रेंज के कड़वापानी क्षेत्र में। यहां मिट्टी में नमी तो थी, मगर बेजबानों के लिए पानी उपलब्ध नहीं था। इस पर विभागीय अधिकारियों ने इस क्षेत्र के जंगल में वर्षा जल संचय का निश्चय किया और इसमें वित्तीय मदद मिली प्रतिकरात्मक वनरोपण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा) से। फिर 50 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में जलकुंड बनाए गए। पिछले साल हुई इस पहल के सार्थक परिणाम आए। जलकुंडों में पानी जमा हुआ तो बेजबानों की प्यास बुझने लगी। साथ ही नमी बढ़ने से हरियाली भी बढ़ी है। ऐसे प्रयासों को बढ़ाने की आवश्यकता है।

सतत विकास का माडल चिड़ियाघर

सतत विकास की अवधारणा तभी मूर्त रूप ले सकती है, जब प्रबंधन बेहतर हो। फिर चाहे वह जंगल हो अथवा चिड़ियाघर, बिना अच्छे प्रबंधन के विकसित नहीं हो सकते। इस दृष्टिकोण से देखें तो देहरादून के चिड़ियाघर को सतत विकास का माडल बनाने की दिशा में प्रयास तेज हुए हैं। देहरादून-मसूरी मार्ग पर मालसी में 25 हेक्टेयर जंगल में फैले चिड़ियाघर में बेहतर ढंग से कूड़ा प्रबंधन के साथ ही उसे प्लास्टिकमुक्त जोन बनाया जा चुका है। अब वहां वर्षा जल संरक्षण के प्रयास भी प्रारंभ कर दिए गए हैं तो वैकल्पिक ऊर्जा के लिए उच्च क्षमता का सोलर पावर प्लांट लग चुका है। साफ है कि इन प्रयासों से ऊर्जा की बचत होने के साथ ही बूंदों को सहेजकर एकत्रित जल का उपयोग भी किया जा सकेगा। चिड़ियाघर प्रबंधन का प्रयास है कि यहां कार्बन फुटप्रिंट को कम किया जाए। साथ ही वहां अन्य पहल भी हो रही हैं।

सक्रिय दिखने लगी है मशीनरी

मौसम अभी साथ दे रहा है और नियमित अंतराल पर हो रही बारिश-बर्फबारी से जंगलों पर फिलहाल आग का खतरा नहीं है। इसके बावजूद चिंता कम होने का नाम नहीं ले रही। वजह ये कि वनों की आग के दृष्टिकोण से सबसे संवेदनशील समय शुरू होने में अब थोड़े ही दिन शेष हैं। अमूमन, 15 फरवरी से मानसून आने की अवधि में जंगल सर्वाधिक धधकते हैं। इसीलिए इस समय को अग्निकाल भी कहा जाता है। अच्छी बात ये है कि आने वाली चुनौती से निबटने के मद्देनजर विभागीय मशीनरी इस बार अभी से सक्रिय दिख रही है। जिलेवार फायर प्लान तैयार हो रहे तो वनकर्मियों के प्रशिक्षण, आवश्यक उपकरणों की उपलब्धता, क्रू-स्टेशनों में तैनाती व उपकरणों की व्यवस्था जैसे कदम उठाने प्रारंभ कर दिए गए हैं। यह आवश्यक भी है। ऐसे में उम्मीद जगी है कि इस बार वनों को आग से बचाने के लिए तंत्र अधिक गंभीरता से जुटेगा।

जानेंगे क्या होता है घराट

लच्छीवाला के जंगल में वन विभाग की ओर से विकसित किया गया नेचर पार्क अब नालेज पार्क की शक्ल भी ले चुका है। नेचर पार्क में उत्तराखंड की सभ्यता व संस्कृति से सैलानी परिचित हो रहे हैं। यहां का रहन-सहन, पहनावा, कृषि उपकरण, पारंपरिक बीज जैसे विविध विषयों की जानकारी इसमें सैलानियों को मिल रही है। इस कड़ी में अब घराट (पनचक्की) भी जुड़ने जा रहा है। सैलानी यहां घराट को न केवल नजदीक से देख सकेंगे, बल्कि यह कैसे कार्य करता है, वैकल्पिक ऊर्जा के साधन के तौर पर इसका किस तरह उपयोग होता आ रहा है। ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर सैलानियों, विशेषकर बच्चों को वहां मिलेगा। गेहूं, मसाले पीसने के उपयोग के साथ ही घराट कई जगह घरों को भी रोशन करते हैं। विभाग की योजना परवान चढ़ी तो जल्द ही लच्छीवाला में घराट स्थापित कर दिया जाएगा। इसकी तैयारियां पिछले कई दिनों से चल रही हैं।

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