देहरादून। हमारी आर्थिक स्थिरता पूरी तरह से पारिस्थितिकी पर निर्भर है। फ्रांस की एक यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के मुताबिक दो लाख ग्लेश्यिर के अध्ययन में पाया गया कि इनमें बर्फ पिघलने की दर पिछले कुछ सालों में दो हजार गुना हो चुकी है और पूरी दुनिया में अगर यही रफ्तार रही तो 21 फीसद समुद्र तल बढ़ जाएगा, जिससे बहुत से देशों को सीधा बड़ा नुकसान होगा। इसलिए यह जरूरी है कि सुरक्षित और बेहतर भविष्य के लिए सतत विकास का रास्ता अपनाया जाए, न कि बिना पर्यावरण को ध्यान में रखे अंधाधुंध विकास किया जाए। यह बात पद्मभूषण डॉ. अनिल जोशी ने ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी एवं स्कूल की ओर आयोजित से एक वेबिनार में कही। वेबिनार का विषय पारिस्थितिकी विकास के उपाय के रूप में सकल पर्यावरण उत्पाद था।
डॉ. अनिल जोशी ने कहा कि हिमालय के ग्लेशियर पांच से 10 मीटर प्रतिवर्ष की गति से पिघल रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमें यह जानना चाहिए कि ग्लेश्यिर ही दुनिया भर में पानी का सबसे बड़ा स्रोत हैं। प्रतिवर्ष 10 मिलियन हेक्टेअर जंगल दुनिया भर में कट रहे हैं और ये हालात ऐसे ही रहे तो अभी जो हमारे पास 4.6 बिलियन हेक्टेअर है, वो घट के कम हो जाएगा। दुनिया में करीब 31 फीसद क्षेत्रफल में वन हैं, जो अगर इससे नीचे घटे तो हम बड़े संकट में चले जाएंगे।
अपने देश में 21 फीसद वन हैं। इनके हालात बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। दुनिया में प्रति व्यक्ति 0.6 हेक्टेअर वन हैं, जबकि भारत में 0.08 फीसद हैं। पानी के हालात को लेकर उन्होंने कहा कि 1951 में 5,170 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति पानी था, जो कि तेजी से घट रहा है। 2025 में यह प्रति व्यक्ति 1465 हो जाएगा और यदि ऐसी ही रफ्तार रही तो 2050 में 1235 प्रति व्यक्ति पहुंच जाएगा।
इसी तरह से चाहे वो तालाब हों या कुंए, इन सबके हालात दिन-प्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं। ऐसे ही हालात लगभग मिट्टी के भी हैं, दुनिया की आधी मिट्टी हम खो चुके हैं और अब उसकी भरपाई के लिए कैमिकल फर्टिलाइजर पर टिके हैं। दुनिया के 90 फीसद लोग बेहतर हवा नहीं पा रहे हैं। भारत में ही करीब 17 लाख व्यक्तियों ने 2019 में वायु प्रदूषण से जीवन खो दिया। उन्होंने कहा कि दुनिया में हवा, पानी, मिट्टी हर चीज की हालत बिगाड़ कर खरबों रुपये के व्यवसाय खड़े किए जा रहे हैं। अब समय है कि हम गंभीर हो जाएं। उन्होंने छात्रों से आह्वान किया कि उत्तराखंड पहला राज्य होगा जो जीईपी देगा, लेकिन यह राष्ट्र की पूरी आवश्यकता है और इसमें कुछ हद तक सैद्धांतिक सहमति बन चुकी है।