उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन करके भारतीय जनता पार्टी ने एक साथ पांच निशाने साधे हैं। यह बिल्कुल साफ है कि जैसा भाजपा और उसके तमाम बड़े नेता दावा करते रहे हैं कि सांविधानिक संकट की स्थिति के कारण यह निर्णय लेना पड़ा, उनमें कोई दम नहीं है।
वास्तव में यह सांविधानिक नहीं बल्कि पार्टी का भीतरी रणनीतिक संकट भर था। यह इस बात को भी दर्शाता है कि भाजपा ने प्रचंड बहुमत के बाद और कोई विशेष कारण न होने के बावजूद बार-बार मुख्यमंत्री बदले हैं।संविधान की जिस धारा 151ए का हवाला देकर पार्टी उपचुनाव न हो सकने की बाध्यता बता रही है उसके तहत ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। इस मामले में वर्ष 2017 का नगालैंड हाईकोर्ट का फैसला उदाहरण योग्य है। तब ऐसी ही परिस्थितियों में कोर्ट ने इस धारा का विश्लेषण करने के बाद विधानसभा का कार्यकाल मात्र आठ माह शेष रहते चुनाव आयोग के उप चुनाव कराने संबंधी निर्णय को सही ठहराया था।
हालांकि चुनाव आयोग ने बंगाल के चुनाव में कोविड प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ने पर मूकदर्शक बने रहने से हुई फजीहत और और मद्रास हाईकोर्ट की इस टिप्पणी के बाद घोषणा की थी कि फिलहाल वह देश में उपचुनाव नहीं करवाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस टिप्पणी को अनुचित करार दिया था लेकिन आयोग की फजीहत तो हो ही चुकी थी।चुनाव आयोग उपचुनाव पर निर्णय केंद्र सरकार से विचार-विमर्श के बाद लेता है। ऐसे में यदि केंद्र आयोग से राज्य की परिस्थिति के अनुसार उपचुनाव का आग्रह करता तो कोई सांविधानिक बाध्यता आड़े नहीं आ सकती थी। लेकिन केंद्र सरकार ने दूसरा रास्ता चुना और इसकी आड़ में मुख्यमंत्री को हटा दिया। वैसे भी यदि तीरथ सिंह रावत को चुनाव लड़ाना ही था तो सल्ट से चुनाव का विकल्प भी पहले मिल ही चुका था। साफ है कि भाजपा का उद्देश्य सीएम की कुर्सी को पक्का करना नहीं बल्कि तीरथ को हटाने मात्र का था और इसके लिए यह रणनीति बनाई गई। भाजपा भले ही इसे अपनी रणनीतिक जीत माने लेकिन इससे राज्य में उसकी जो फजीहत हुई है उसके बाद इस रणनीति की सफलता संदिग्ध ही कही जाएगी। भाजपा ने एक तीर जो पांच निशाने साधे, उनमें सबसे बड़ा है-बंगाल में ममता बनर्जी को दबाव में लेना और उनके कुछ समय के लिए ही सही कुर्सी से हटने पर किसी राजनीतिक प्रयोग की संभावना तलाशना है।उतराखंड में अपने सीएम की बलि चढ़ाकर अब बंगाल में चुनाव न करवाने की राह खुल गई है। ममता को नवंबर प्रथम सप्ताह तक कोई उपचुनाव जीतना जरूरी है वरना उन्हें इस्तीफा देना पड़ेगा। भले ही सरकार उन्हीं की पार्टी की रहेगी और फरवरी में यूपी, उतराखंड के चुनाव के दौरान वे उपचुनाव जीत कर फिर सीएम बन जाएंगी लेकिन भाजपा को निश्चय ही इस अवधि में कुछ प्रयोग करने का मौका मिल सकता है।तीरथ सिंह रावत बेहद मिलनसार और सहज उपलब्ध सीएम थे लेकिन सीएम बनने के बाद से उनके विवादित व गैर जरूरी बयानों के कारण पार्टी असहज महसूस कर रही थी। माना जा रहा है कि पार्टी को गंगोत्री से उनके चुनाव जीतने और इन हालात में फरवरी में राज्य के चुनाव में पार्टी की जीत पर भी संशय होने लगा था। पूर्व सैनिक के बेटे पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने राज्य के पूर्व सैनिकों और युवाओं को साधने का भी दांव खेला है। इन पांच समीकरणों को एक साथ साधने का यह प्रयास कितना सफल रहेगा यह अब धामी के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा।
बता दें कि वर्ष 2017 में नगालैंड में डेमोक्रेटिक अलायंस ऑफ नगालैंड की सरकार थी। स्वयं भाजपा इस गठबंधन में शामिल थी। फरवरी 2018 में राज्य विधानसभा के चुनाव होने थे लेकिन 2017 में पार्टी के नीतिगत निर्णय के विरोध में जबरदस्त हिंसा हुई, जिसमें अनेक लोग मारे गए। फरवरी 2017 में तत्कालीन सीएम टीआर जेलियांग को इस्तीफा देना पड़ा। तब 22 फरवरी को शुरहोजेली लेजिएत्सु सीएम बनाए गए जो विधानसभा के सदस्य नहीं थे। उन्हें छह माह के भीतर चुनाव जीतना जरूरी था लेकिन राज्य की कोई सीट रिक्त नहीं थी। सीएम के लिए उतरी आगामी सीट के विधायक ख्रिशु लेजिएत्सु ने 24 मई को त्यागपत्र देकर सीट खाली की। चुनाव आयोग ने 29 जून को विज्ञप्ति जारी कर 29 जुलाई की तिथि उपचुनाव के लिए तय की जिसे प्रदेश कांग्रेस समिति ने कोर्ट में इस आधार पर चुनौती दी कि विधानसभा का कार्यकाल एक वर्ष से कम शेष है और ऐसे में उपचुनाव नहीं हो सकते। कोर्ट की कोहिमा पीठ के सिंगल बेंच का निर्णय उसके पक्ष में आया जिसे सत्ताधारी पार्टी ने डबल बेंच में चुनौती दी। संबंधित सांविधानिक व्यवस्था के गहन विश्लेषण के बाद नगालैंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अजीत सिंह और न्यायमूर्ति मनोजीत भुयान की खंडपीठ ने कोहिमा बेंच का निर्णय पलटते हुए व्यवस्था दी कि ऐसे में उपचुनाव न कराने की कोई बाध्यता नहीं है। इसके बाद चुनाव जीतकर लेजिएत्सु ने कार्यकाल पूरा किया।