पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध में टिहरी बांध के खिलाफ आंदोलन जैसा ही बांध विरोधी आंदोलन हरिद्वार में हुआ था। उस आंदोलन का नेतृत्व महामना मदनमोहन मालवीय ने किया था और वह दुनिया का पहला बांध विरोधी आंदोलन था।महामना ने तो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार को झुका दिया था।
लेकिन बहुगुणा भारी संघर्ष के बावजूद बांध का निर्माण रोक नहीं पाए। हरिद्वार आंदोलन को दस्तावेज के रूप में उन्होंने सुप्रीमकोर्ट तक प्रस्तुत किया। इस काम में गंगा सभा ने भी उनकी मदद की थी।सुंदरलाल बहुगुणा ने जब बांध विरोधी आंदोलन शुरू किया, तब वे कई बार हरिद्वार आए। गंगा सभा से उन्होंने पिछली शताब्दी में 1914 से 1916 तक हुए आंदोलन का पूरा ब्योरा प्राप्त किया।उन्होंने हरिद्वार के साधु संतों से भी टिहरी आकर आंदोलन में भाग लेने का आग्रह किया। लेकिन धर्म की इस नगरी से उन्हें कोई विशेष समर्थन नहीं मिला। अलबत्ता हरिद्वार बांध आंदोलन की सफलता को एक धार्मिक नजीर के रूप में न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया और टिहरी बांध बन गया।
महामना मालवीय की अगुवाई में दो वर्षों तक लड़ी गई लड़ाई सफल हुई थी। अंग्रेजों को हरकी पैड़ी तक गंगा की अविच्छिन्न धारा जस की तस छोड़नी पड़ी और लिखित समझौता भी पुरोहितों के साथ करना पड़ा।
1915 में होने वाले कुंभ पर गंगा को नियंत्रित करने के लिए गवर्नर सर जेम्स मेस्टन के नेतृत्व में गंगा पर बांध बनाने की योजना 1914 में शुरू हुई। पुरोहितों ने आपत्ति जताई कि बंधी हुई गंगा में कुंभ स्नान नहीं हो सकता। पुरोहित काशी जाकर महामना को बुला लाए और अपना नेतृत्व उन्हें सौंप दिया।
विरोध इतना प्रबल हुआ कि पंडों ने अपने राजा यजमानों से सहायता मांगी। तब महाराजा जयपुर, महाराजा अलवर, महाराजा कपूरथला, महाराजा कासिम बाजार, काशी नरेश आदि 25 रियासतों ने सेनापतियों के नेतृत्व में अपनी फौजें भीमगोडा के मैदान में भेज दी। उग्र आंदोलन को देखते हुए 1915 के कुंभ तक अंग्रेज रुक गए।
लेकिन कुंभ के बाद भी बांध नहीं बनाने दिया गया। दिसंबर 1916 में अंग्रेज सरकार झुक गई। महामना ने उसी समय पुरोहितों की संस्था गंगा सभा की स्थापना की। अंग्रेजों और पुरोहितों के बीच लिखित समझौता हुआ जो आज भी कायम है। बाद में बांध चंडी पर्वत के नीचे बहने वाली नीलधारा पर बनाया गया। ब्रह्मकुंड पर गंगा की अविच्छिन्न धारा निरंतर बह रही है।