रिस्पना नदी कब्जे मामलें में कोर्ट ने केंद्र व राज्य सरकार से जवाब तलब किया

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देहरादून। संवाददाता। हाईकोर्ट ने एक बार फिर रिस्पना और बिंदाल नदियों पर हुए अतिक्रमण के मुद्दे पर केन्द्र सरकार, राज्य सरकार तथा प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड को जवाब तलब करके इस बात की उम्मीद जताई है कि राजधानी की रिस्पना और बिन्दाल जैसी नदियों के अच्छे दिन आने वाले है। लेकिन यह अच्छे दिन तभी आ सकते है जब नेता और राजनीतिक दल इसमें कोई अंड़गेबाजी न करें।

नैनीताल हाईकोर्ट द्वारा दून की नदियो नालों और खालों की पूर्ववर्ती स्थिति बहाल करने के निर्देश देते हुए राज्य व केन्द्र सरकार से तीन सप्ताह में जवाब तलब तो किया है लेकिन यह काम आसान नहीं है। सिर्फ रिस्पना और बिन्दाल नदियों की बात करें तो इन नदियों के बहाव क्षेत्र में सवा सौ से अधिक अवैध बस्तियंा बसी हुई है। रिस्पना का दून मेें 19 किलोमीटर क्षेत्र आता है जबकि बिंदाल का 13 किलोमीटर क्षेत्र है। बिन्दाल नदी पर मालसी से लेकर सुसवा तक 10 हजार से भी अधिक अतिक्रमण है। इन दोनों नदियों की चैड़ाई क्षेत्र पर भले ही कोर्ट ने अभी कोई निर्णय न लिया हो लेकिन बीसकृतीस साल पूर्व की स्थिति को भी बहाल करने का निर्णय लिया जाता है तो लाखों निर्माण अतिक्रमण की जद में आ जायेंगे तथा इन क्षेत्रों रहने वाले ढाई से तीन लाख तक की आबादी प्रभावित होगी? क्या बिन्दाल और रिस्पना को पुराने रूप में लाने के लिए इतनी बड़ी आबादी को उजाड़ा जाना संभव है?

इन नदियों के प्रवाह क्षेत्र में सिर्पफ निजी भवन ही नहीं आते है। कारोनेशन अस्पताल से लेकर राज्य विधानसभा भवन तक रिस्पना क्षेत्र की जद में है। अभी बीते साल मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत द्वारा भी रिस्पना को फिर से पुराने स्वरूप में लाने की बात कही गयी थी। नदी के उदगम क्षेत्र में वृक्षारोपण का कार्यक्रम भी चलाया गया था। इससे पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने भी रिवर प्रफंट योजना तैयार की थी। लेकिन कोई भी योजना तब तक परवान नहीं चढ़ सकती है जब तक इन नदियों से अतिक्रमण नहीं हटाया जाता तथा इनका बहाव क्षेत्र तय नहीं किया जाता व नदी क्षेत्र में अतिक्रमण रोकने के लिए सख्ती नहीं बरती जाती।

इन नदियों का अस्तित्व बचाया जाना दून के लिए इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस शहर की जल निकासी इन्ही नदियों पर निर्भर है। रिस्पना और बिंदाल नदियों का अस्तित्व समाप्त होने का अर्थ है दून का अस्तित्व समाप्त। खास बात यह है कि इन नदियों पर जो अतिक्रमण हुआ है वह नेताओं और राजनीतिक दलों की देन है। उनके सरंक्षण के कारण ही यह अतिक्रमण कभी नहीं हटाया जा सका है। अभी बीते साल हाईकोर्ट द्वारा मनमोहन लखेड़ा की जनहित याचिका पर सुनवायी के दौरान राजधानी से अतिक्रमण हटाने के जो निर्देश दिये गये थे उसमें इन नदियों पर हुआ अतिक्रमण भी शामिल था। प्रशासन ने उस दौरान नदियों के किनारे पांच हजार से अधिक अतिक्रमणों पर लाल निशान तक लगा दिये गये थे लेकिन सूबे की त्रिवेन्द्र सरकार ने अध्यादेश लाकर इस अवैध निर्माण के खिलाफ कार्यवाही नहीं होने दी। सरकार इस अवेैध अतिक्रमण के खिलाफ खुद कुछ करेगी इसकी उम्मीद ही छोड़ दो करने भी देगी यह भी संभव नहीं है।

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