देहरादून। संवाददाता। उत्तराखंड को पांडवों की धरती भी कहा जाता है। मान्यता है कि पांडव यहीं से स्वार्गारोहणी के लिए गए थे। इसी कारण उत्तराखंड में पांडव पूजन की विशेष परंपरा है। बताया जाता है कि स्वर्ग जाते समय पांडव अलकनंदा व मंदाकिनी नदी किनारे से होकर स्वर्गारोहणी तक गए। जहां-जहां से पांडव गुजरे, उन स्थानों पर विशेष रूप से पांडव लीला आयोजित होती है। प्रत्येक वर्ष नवंबर से लेकर फरवरी तक केदारघाटी में पांडव नृत्य का आयोजन होता है। खरीफ की फसल कटने के बाद एकादशी व इसके बाद से इसके आयोजन की पौराणिक परंपरा है।
उत्तराखंड में केदारनाथ से लेकर हर मंदिर से पांडवों से जुड़ी कथाएं प्रचलित हैं। यहां के स्थानीय निवासी पांडवों की देवताओं के रूप में पूजा करते हैं। पांडव नृत्यों के आयोजन में पांडव आवेश में परम्परागत वाद्य यंत्रों की थाप और धुनों पर नाचते हैं। पांडव नृत्य में युद्ध की सदियों पुरानी विधाओं जैसे चक्रव्यू, कमल व्यू, गरुड़ व्यू, मकर व्यू आदि का भी आयोजन होता है। रात्रि में पांडव लीला के आयोजन में महाभारत की कथाओं का मंचन भी होता है। पांडव नृत्यों का आयोजन 21 से लेकर 45 दिन तक का होता है।
अस्त्र-शस्त्रों के साथ करते हैं पांडव नृत्य
रुद्रप्रयाग जिले के ग्राम सभा दरमोला में प्रत्येक वर्ष पांडव नृत्य का आयोजन एकादशी पर्व पर होता है। पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों में बाणों की पूजा की परंपरा मुख्य है। ग्रामीणों के अनुसार स्वर्ग जाने से पहले भगवान कृष्ण के आदेश पर पांडव अपने अस्त्र-शस्त्र पहाड़ में छोड़कर मोक्ष के लिए स्वर्गारोहणी की ओर चले गए थे। जिन स्थानों पर यह अस्त्र छोड़ गए थे, उन स्थानों पर विशेष तौर से पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है और इन्हीं अस्त्र-शस्त्रों के साथ पांडव नृत्य करते हैं।
वहीं अन्य स्थानों पर पंचाग की गणना के बाद ही शुभ दिन निश्चित किया जाता है। केदारघाटी में पाण्डव नृत्य अधिकांश गांवों में आयोजित किए जाते हैं, लेकिन अलकनंदा व मंदाकनी नदी के किनारे वाले क्षेत्रों में पांडव नृत्य अस्त्र-शस्त्रों, जबकि पौड़ी जनपद के कई क्षेत्रों में मंडाण के साथ यह नृत्य भव्य रूप से आयोजित होता है। नृत्य के दौरान पांडवों के जन्म से लेकर मोक्ष तक का सजीव चित्रण किया जाता है।