तीन तलाक पर कानून बनने से मुस्लिम स्त्रियां को मिली राहत-राज किशोर। 

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विचार मंथन 

तीन तलाक पर कानून बनने से सभी मुस्लिम स्त्रियां राहत की सांस लेंगी। अभी तक उनके सिर पर हमेशा तीन तलाक की तलवार लटकी रहती थी। इससे पुरुष का पलड़ा भारी रहता था। एक और बात है। उच्चतम न्यायालय ने तीन तलाक को अवैध ठहरा कर सरकार को इसके लिए प्रोत्साहित किया था, लेकिन यह भी विचारणीय है कि तीन तलाक को एक आपराधिक कृत्य बनाना क्या जरूरी है? जब तीन तलाक की कोई वैधानिक मान्यता ही नहीं है तो वह अपने आप में प्रभावहीन हो जाता है। अर्थात कोई मुस्लिम व्यक्ति अपनी पत्नी को तीन तलाक देकर उससे स्वतंत्र हो जाना चाहता है, तब यह संभव नहीं है। इसके बाद भी उस स्त्री का पत्नी के रूप में हक बना रहेगा। उसे तलाकशुदा नहीं माना जाएगा।

इसलिए जब तीन तलाक नाम की चीज को खत्म कर दिया गया है तो ऐसे पुरुष को तीन साल तक की सजा किस आधार पर दी जा सकती है? कानूनी शक्ति के अभाव में उसका तीन बार तलाक कहना वैसे ही है जैसे बलाक बलाक बलाक या कमाल कमाल कमाल कहना। फिर भी यह स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि नए कानून के बाद मुस्लिम समाज में तीन तलाक की घटनाएं खत्म हो सकती हैं, लेकिन दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो इसे अपराध घोषित करने का अर्थ है मुस्लिम पुरुष की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करना।

दूसरे धर्मो के लोगों को तलाक पाने के लिए अदालत की शरण में जाना पड़ता है। सिर्फ इस्लाम में यह व्यवस्था है कि कोई भी पुरुष या स्त्री अदालत में गए बिना खुद के अधिकार से तलाक दे सकता है। एक बार में तीन बार तलाक कह दिया जाए या एक-एक महीने के अंतराल से, बात तो एक ही है। बल्कि अंतराल वाले में एक बार तलाक कह दिया जाए तो और परेशानी है-स्त्री के सिर पर तलवार लटकती रहती है कि पता नहीं कब दूसरी या तीसरी बार तलाक कह दिया जाए। इसलिए तीन तलाक पर इस कानून से तीन तलाक की मूल व्यवस्था में कोई फर्क नहीं पड़ता। अब भी मुस्लिम पुरुष को यह अधिकार है कि वह एक-एक या तीन-तीन महीने के अंतराल से तीन बार तलाक कह कर अपनी पत्नी से मुक्त हो सकता है यानी पत्नी को बेसहारा छोड़ सकता है।

जॉर्ज बरनार्ड शॉ को याद करना बहुत प्रासगिंक है। उनका कहना था कि मांगने भर से तलाक मिल जाना चाहिए। इसमें अदालत की स्वीकृति आवश्यक नहीं होना चाहिए। विवाह अगर दो व्यक्तियों का ऐच्छिक मामला है यानी विवाह करने के लिए सरकार, अदालत या किसी अन्य अथॉरिटी की अनुमति लेना जरूरी नहीं है तो उन्हें आपस में न पटने पर अलग होने का निर्णय लेने के लिए भी स्वतंत्र क्यों नहीं होना चाहिए? उन्हें क्यों बाध्य किया जाए कि वे अदालत में जाएं और जज से प्रार्थना करें कि हुजूर, हममें बन नहीं रही है, इसलिए आप कृपा कर मुझे पति या पत्नी से छुटकारा दिलाएं? इस मामले में मैं शॉ का प्रशंसक हूं। कहावत है मियां-बीवी राजी, तो क्या करेगा काजी। अगर यह कहावत सही है तो क्या यह कहावत क्यों नहीं बन सकती कि मियां-बीवी नाराजी, तो क्या करेगा काजी?

मुस्लिम समाज की और भी समस्याएं हैं जिन पर विचार किया जाना चाहिए। पहला, मेहर पर विवेकसम्मत व्यवस्था बनायी जाए। मेहर उस रकम को कहते हैं, जिसके बारे में यह करार होता है कि मर्द अगर औरत को तलाक देता है, तो उसे अपनी बीवी को यह रकम अदा करनी होगी। मेरी समझ से यह करार ठीक नहीं है, क्योंकि यह वधू मूल्य की तरह की चीज है, जिसे शॉ एक तरह की वेश्यावृत्ति मानते थे। मेहर का मतलब यह है कि स्त्री एक खास कीमत पर अपने आप को पुरुष के हाथों सौंप देती है।

सुना है, शाहदाजियों की मेहर करोड़ों में तय होती है, लेकिन साधारण नागरिकों के मामले में मेहर की रकम साधारण ही होती है। इसका एक कारण यह है कि जिस समय शादी होती है, पुरुष की कोई आय नहीं होती या बहुत कम आय होती है। पुरुष अगर बाद में बहुत अमीर हो जाए, तब भी मेहर की रकम बदलती नहीं है। यह स्त्री के साथ सरासर अन्याय है। व्यवस्था यह होनी चाहिए कि पुरुष द्वारा तलाक देने पर उसकी वर्तमान आय का मूल्यांकन होना चाहिए और उसके आधार पर मेहर की रकम में संशोधन किया जाना चाहिए। यदि तलाक के समय पुरुष दिवालिया हो चुका है तो उसे मेहर देने से मुक्ति भी दी जा सकती है। मुस्लिम निजी कानून में एक गंदी चीज है हलाला। इसके अंतर्गत धार्मिक प्रावधान यह है कि कोई पुरुष अगर अपनी पत्नी को तलाक दे देता है और उसके बाद उससे फिर शादी करना चाहे तो इसके लिए पहले स्त्री को किसी और पुरुष से विवाह करना पड़ेगा और उससे तलाक लेना पड़ेगा। क्या यह स्त्री का अपमान नहीं है?

हलाला कितनी गंदी चीज है, इसका किस्सा सुनिए- मीना कुमारी ने फिल्म ‘पाकीजा’ के निर्देशक कमाल अमरोही से निकाह किया था। एक बार कमाल अमरोही ने गुस्से में आकर मीना कुमारी को तीन बार ‘तलाक’ बोल दिया और दोनों का तलाक हो गया। बाद में कमाल अमरोही को अपने किये पर पछतावा हुआ और उन्होंने मीना कुमारी से दोबारा निकाह करना चाहा, लेकिन तब इस्लामी धर्म गुरुओं ने बताया था कि इसके लिए पहले मीना कुमारी को ‘हलाला’ करना पड़ेगा। तब कमाल अमरोही ने मीना कुमारी का निकाह अमान उल्ला खान (जीनत अमान के पिता) से कराया था। मीना कुमारी को अपने नए शौहर के साथ हमबिस्तर होना पड़ा था। दोनों कुछ दिन साथ रहे। इसके बाद मीना कुमारी को नए शौहर ने तलाक दिया और फिर कमाल अमरोही ने दोबारा मीना कुमारी से निकाह किया।

मीना कुमारी ने लिखा था, ‘जब धर्म के नाम पर मुझे अपने जिस्म को किसी दूसरे मर्द को सौंपना पड़ा तो फिर मुझमें और वेश्या में क्या फर्क रहा?’ माना जाता है कि इस घटना के बाद मीना कुमारी पूरी तरह से टूट गईं और शराब पीने लगी थीं। मानसिक तनाव और शराब उनकी मौत का कारण बनी और उन्होंने सिर्फ 39 साल की उम्र में साल 1972 में इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था। इसके बाद भी जो समाज हलाला के औचित्य पर विचार नहीं करता तो उसे अन्यायी समाज क्यों न कहा जाए? सरकार अगर सचमुच मुसलमानहितैषी है और अगर चूहा मार कर बहादुर नहीं कहलाना चाहती, तो उसे मुस्लिम निजी कानूनी के सभी बिंदुओं पर विचार करना चाहिए। इसका सब से अच्छा उपाय है समान सिविल कानून। संविधान में भी इसका निर्णय है और उच्चतम न्यायालय भी इसके पक्ष में है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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