कोरोना महामारी के बाद देश के विभिन्न शहरों में तरह तरह के रोजगार में जुटे उत्तराखंड के लोग, हजारों की संख्या में बेरोजगार हो वापस लौट आये हैं। सभी जिलों में यह संख्या हजारों में है। इन्हें अपने घर या शहर में ही रोजगार उपलब्ध कराना सरकार के लिए एक बड़ी समस्या है, जिसका उपाय उसे निश्चित रूप से खोजना है। वे उपाय क्या हों? इस विषय पर पढ़िए साहित्यकार रतन किरमोलिया का यह लेख-सम्पादक
उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से ही रोजगार तलाशने की जरूरत है। बाहर से कच्चा माल मंगा कर यहां फैक्ट्रियों की स्थापना करना टेड़ी खीर है। यहां खेती किसानी, पशु पालन, बागवानी के अलावा जड़ीबूटी की खेती, फूलों की खेती, सगंध फूलों की खेती, नकदी फसल उत्पादन, बेमौसमी सब्जी उत्पादन आदि से भी रोजगार सृजित किया जा सकता है। इसके अलावा जहां पानी उपलब्ध है वहां मत्स्य पालन का धंधा किया जा सकता है। मुर्गी पालन भी फायदेमंद हैं। खेती और पशुपालन को नई तकनीकों का इस्तेमाल कर फायदेमंद बनाया जा सकता है।
खेती को वन्यजीवों से होने वाले नुकसान को परंपरागत तरीकों के साथ नई तकनीकों का इस्तेमाल कर बचाव किया जा सकता है। खाली होते वनों को पुनः विकसित करने के लिए चौड़ी पत्तीवाले पौधों की नर्सरियां तैयार करवाई जा सकती हैं।जिन्हें वन विभाग खरीदे और ग्रामीणों की मदद से वनीकरण करवाए। इससे भी लोगों को रोजगार मिल सकता है।
हमारे वनों में पाए जाने वाले चीड़ के वृक्षों की बहुतायत है। इसकी सूखी पत्तियां पिरूल कहलाती हैं। ये गर्मियों में वनाग्नि के मुख्य कारण और कारक होती हैं। सर्वविदित है कि इस वनाग्नि से जंगलों की बहुमूल्य जड़ी-बूटियां एवं वनस्पतियां, छोटे-बड़े पेड़-पौधेतो नष्ट होते ही हैं। इससे वन्यजीवों को भी भारी क्षति पहुंचती है। यही कारण है कि वनस्पतियों की और वन्यजीवों की कई प्रजातियां धीरे-धीरे विलुप्त हो रही हैं ।
पिरूल से कई वर्षों पूर्व कोयला बनाने की तकनीक विकसित की गई थी। काफी वर्षो तक यह लोगों का अच्छा रोजगार रहा। छिटपुट आज भी कई लोग इस पिरूल से अपने उपयोग के लिए कोयला बनाते हैं। इसे व्यापारिक मात्रा में बनाए जाने की जरूरत है। यह रोजगार का एक बहुत अच्छा जरिया बन सकता है।
इस बीच इस पिरूल से कागज बनाने की नई तकनीक विकसित की गई है। जी बी पंत राष्ट्रीय हिमालयन पर्यावरण विकास संस्थान, कोसी-कटारमल जनपद अल्मोड़ा के वैज्ञानिकों ने यह कारनामा कर दिखाया है। यह भी खबर है कि इस पिरूल से पेट्रोल बनाने की तकनीक विकसित करने पर भी काम चल रहा है।
फिलवक्त इस पिरूल से कोयला और कागज निर्माण को बड़े पैमाने पर शुरू कर बड़ा रोजगारपरक ढांचा खड़ा किए जाने की जरूरत है। इससे जहां जंगलों को आग से निजात दिलाई जा सकती है। वहीं बड़े पैमाने पर रोजगार सृजित हो सकता है। सरकार एवं बड़ी कंपनियों को इस पर विचार विमर्श करना चाहिए। इससे सरकार को भी अच्छा राजस्व प्राप्त हो सकता है।
हमारा उत्तराखंड नदियों का मायका कहलाता है। अधिकांश नदियों का उद्गम हमारा उत्तराखंड ही है। इन नदियों में प्रति वर्ष बरसात की बाढ़ में बह कर आने वाले टनों रेता, कंकड़, बजरी और पत्थर ऊंची पहाड़ियों से आकर नदी के किनारे मैदानी हिस्सों में जमा हो जाता है। इससे बहुधा नदियां उथली हो जाती हैं और बरसात का पानी नदी किनारे के उपजाऊ खेतों को भारी नुकसान पहुंचाता है। इस तरह हर वर्ष बाढ़ से कई हेक्टेयर उपजाऊ खेत बहते रहते हैं और किसानों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है।
सरकार हर वर्ष इस खनिज को बड़े पूंजीपतियों को टेंडर के माध्यम से सौंप देती है। सरकार को राॅयल्टी के रूप में बहुत कम धनराशि मिल पाती है। जबकि इसे यदि उद्योग का रूप दिया जाए तो इससे जहां बहुत बड़ा रोजगार सृजित हो सकता है वहीं सरकार को अच्छी खासी आय हो सकती है। नदियों से प्राप्त होने वाले इस खनिज से पूंजीपति ठेकेदार मालामाल बन रहे हैं और सरकार को चूना लगाया जाता है।
इन सभी प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का सही ढंग से वैज्ञानिक संदोहन किया जाए तो उत्तराखंड की आर्थिकी में चार चांद लग सकते हैं और सरकार को भी अच्छी आय प्राप्त हो सकती है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
रतनसिंह किरमोलिया
गरुड़-बैजनाथ, बागेश्वर
7534007179