- क्या स्कूल में नन्हे बच्चों को अपनी भाषा में बोलने-खेलने से इतनी क्रूरता से मना करना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? कहां हैं वे हिंदी के दिग्गज पत्रकार लेखक, राष्ट्रवादी, धर्मवादी. सेकुलरवादी मंच जो संविधान, मानवाधिकार, मानवीय गरिमा और अस्मिता के नारे लगाते हुए संयुक्त राष्ट्र तक पहुंच जाते हैं, लेकिन अपनी भाषा के मुद्दे पर उतने ही संवेदनहीन हैं।
- ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण और दयनीय समय में बच्चों को हिंदी से डर लगने लगे तो क्या आश्चर्य! अपनी भाषा सीखने के लिए जब न शिक्षा, न स्कूल और न समाज मौका दे और न ही नौकरी की परीक्षाओं में केवल हिंदी जानने वालों के लिए कोई जगह हो तो सितंबर का हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ा भी इस भाषा के हित में क्या नया कर लेगा!
देश के कोने-कोने में समझी, गीतों में गुनगुनाई जाने वाली हिंदी भाषा की स्थिति उतनी दयनीय नहीं है जितनी दीनता से प्रचारित की जा रही है। एक मेधावी छात्रा है, सिविल सेवा परीक्षा की उम्मीदवार। उसे शेर से उतना डर नहीं है, जितना किसी गैर-हिंसक जानवर से। यानी संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा अंग्रेजी में देने वाली को हिंदी में फेल होने का डर सता रहा है। बाकी सभी विषयों में वह आश्वस्त है। हिंदी में सिर्फ पास होने भर का नंबर लाना है और इसका स्तर है मैट्रिक। मेरठ की उस छात्रा को मैंने समझाया कि हिंदी की खड़ी बोली का जन्म तो तुम्हारे क्षेत्र से ही हुआ है और तुमने दसवीं तक पढ़ाई की ही है आदि। लेकिन उसके भीतर एक अजीब-सा डर बैठा हुआ है। उसने कहा- ‘न बोलने का अभ्यास है, न लिखने का! पहली कक्षा से ही दिल्ली में अंग्रेजी में पढ़ाई हुई है। हिंदी में जैसे-तैसे पास होती रही। पिछले सात-आठ सालों से तो एक शब्द नहीं लिखा। हिंदी होती भी तो बहुत कठिन है!’
ऐसा नहीं कि हिंदी समाज का ही हिस्सा रहे इनके माता-पिता को हिंदी में कमजोर होने का पता न हो, मगर हिंदी न आना दरअसल उनके रुतबे को बढ़ाता है। सच यह है कि पूरा देश ही इस ग्रंथि का मारा है। सितंबर महीने में ऐसी बातें सुन कर दिल बैठ जाता है। लेकिन हिंदी अधिकारियों के चेहरे पर चमक इन्हीं दिनों आती है। खासतौर पर मालदार विभाग, तेल कंपनिया, उपक्रम और बैंक जो हिंदी के नाम पर विचित्र प्रतियोगिताओं के लिए तोहफे खरीदने निकल पड़ते हैं। सरकारी गाड़ियों में होटल तलाशते दोपहर या रात का भोजन। पिछले साठ सालों से वैसी ही कवायद, बल्कि हर अगले साल और गिरावट। शायद यह दोहराने की जरूरत नहीं कि हिंदी की ऐसी स्थिति हमारी शहरी शिक्षा व्यवस्था ने सबसे ज्यादा की है। किसे नहीं पता कि अंग्रेजी के पब्लिक स्कूल में हिंदी बोलने पर सरेआम दंड की व्यवस्था है। स्कूलों ने अपने शिक्षकों को आदेश दे रखे हैं हिंदी नहीं बोलने का। यहां तक कि हिंदी का शिक्षक भी पाठ को छोड़ कर कुछ अतिरिक्त नहीं बोलेगा हिंदी में। हर क्लास के मॉनीटर को भी यह काम सौंपा गया है और एक विशेष टीम को भी। स्कूल से बाहर करने तक की धमकी।
रही-सही कसर हिंदी का शिक्षक पूरी कर देता है जो जापानी, फ्रेंच, अंग्रेजी की तरह न नंबर देने में उदार है, न उसे बीस-तीस साल पहले पढ़े पाठ्यक्रम की किताबों के अलावा हिंदी की नवीनतम पुस्तकों की कोई जानकारी रखने की जरूरत महसूस होती है, जिससे वह अपने विद्यार्थियों के साथ नए प्रयोग करके उन्हें प्रोत्साहित कर सके। जब भी स्कूली बच्चों से बात हुई है और उनसे उनके प्रिय अध्यापक के बारे में जानना चाहा, तो हिंदी शिक्षक सबसे पीछे रहता है।
कारणों का अंत यहीं नहीं है। दिल्ली की एक मशहूर दुकान में मुझे प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ की तलाश थी। लगभग दस हजार किताबों के बीच एक कोने में हिंदी की कुछ किताबें थीं। ढूंढ़ते हुए यह पता लगा कि बारहवीं तक अंग्रेजी की दर्जनों पुस्तकें, उपन्यास, कहानी, डायरी, यात्रा, अध्यात्म सहित पूरक पुस्तक के रूप में हर कक्षा में लगाई गई हैं। अच्छी बात है। जाहिर है, यह अंग्रेजी दुरुस्त करने का प्रयास ज्यादा है, बस्ते का बोझ बढ़े तो बढ़े। जब न सरकार टोके, न अभिभावक और इस रास्ते मुनाफा भी स्कूल को हो तो हिंदी दिवस या सप्ताह में रोने वालों की कौन सुने! हिंदी पखवाड़ा तो ये स्कूल भी अंग्रेजी में एक जश्न के बीच ही मनाते हैं।
क्या स्कूल में नन्हे बच्चों को अपनी भाषा में बोलने-खेलने से इतनी क्रूरता से मना करना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? कहां हैं वे हिंदी के दिग्गज पत्रकार लेखक, राष्ट्रवादी, धर्मवादी. सेकुलरवादी मंच जो संविधान, मानवाधिकार, मानवीय गरिमा और अस्मिता के नारे लगाते हुए संयुक्त राष्ट्र तक पहुंच जाते हैं, लेकिन अपनी भाषा के मुद्दे पर उतने ही संवेदनहीन हैं। हिंदी के ऐसे अखबारों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है जो अंग्रेजी सिखाने के काम से प्रचार और प्रसार पा रहे हैं। हिंदी के गाल पर एक बड़ा तमाचा तो दिल्ली, नोएडा, ग्रेटर नोएडा में गगनचुंबी रिहायशी सोसाइटियों के नामों ने लगाया है- जेपी ग्रीन, वाइट हाउस, अल्फा, बीटा, गामा वगैरह। दिल्ली इस मामले में कम नहीं है। यहां के कई इलाके हैं जहां हिंदी सप्ताह या पखवाड़े में दुकान सजती है हिंदी में, लेकिन वे जीते और गाते हैं अंग्रेजी का। ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण और दयनीय समय में बच्चों को हिंदी से डर लगने लगे तो क्या आश्चर्य! अपनी भाषा सीखने के लिए जब न शिक्षा, न स्कूल और न समाज मौका दे और न ही नौकरी की परीक्षाओं में केवल हिंदी जानने वालों के लिए कोई जगह हो तो सितंबर का हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ा भी इस भाषा के हित में क्या नया कर लेगा!