अपने जीवनमूल्यों की रक्षा हेतु शिक्षा का भारतीयकरण जरूरी : कोहली

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पुणे (विसंके) : गुजरात के राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली ने आज यहां कहा, कि हमें अपनी परंपरा जिंदा रखनी है तो उसमें शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है और अपने जीवनमूल्यों की रक्षा हेतु शिक्षा का भारतीयकरण जरूरी है. सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में प्रज्ञा प्रवाह तथा प्रबोधन मंच की ओर से आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी ‘ज्ञानसंगम’ का उद्घाटन श्री कोहली के हाथों हुआ.  ‘भारतीय शैक्षिक परंपरा में राष्ट्रबोध एवं वर्तमान संदर्भ’ विषय पर यह संगोष्ठी आयोजित है. इस अवसर पर वे बोल रहे थे.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपालजी इस अवसर पर मुख्य वक्ता थे.  सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के कुलगुरू नितीन करमलकर,
प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार, रा. स्व. संघ के ९ भारतीय संपर्क प्रमुख प्रो. अनिरुद्ध देशपांडे, प्रबोधन मंच के हरिभाऊ मिरासदार तथा ज्ञानसंगम के संयोजक डॉ. आनंद लेले इस अवसर पर मंच पर उपस्थित थे.

राज्यपाल कोहली ने कहा, “शिक्षा की जड़़े उसे देश की संस्कृति में होनी चाहिए| ऐसा न हो तो वह अराजकीय हो जाती है. मुस्लिम और ब्रिटिश काल में हम अपनी शिक्षा की जड़ें अपनी संस्कृति में रख नहीं पाए. मुस्लिम आक्रमण के समय हम राजनैतिक रूप से पराजित हुए लेकिन मानसिक रूप से अजेय रहे.  ब्रिटिशों के 200 वर्षों के राज में हम न केवल राजनैतिक बल्कि मानसिक रूप से पराजित हुए. इस मानसिक पराजय से कैसे उबरना है यह हमारे सामने अहम सवाल है.स्वतंत्र भारत को हमें राष्ट्रबोध से जोड़ना  इसलिए शिक्षा को भी राष्ट्रबोध से जोड़ना है.”

महर्षि अरविंद को उद्धृत करते हुए श्री. कोहली ने कहा, “भारतीय लोग सांस्कृतिक भावना से जुड़े हुए है. भारतीय संस्कृति का मूल भाव अध्यात्म है.  सार्वभौमिकता उसका एक गुण है.  वह शाश्वत है यह उसका दूसरा गुण है. कभी-कभी इसमें दुर्बलता आती है.  एक पिढी से अगली पीढ़ी में संपदा संक्रमण करना यही परंपरा है. हमें अपनी परंपरा जिंदा करनी है तो उसमें शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है. अगर शिक्षा इसमें कम पड़ती है तो इसमें सुधार करना होगा और शिक्षा का भारतीयकरण करना होगा.  शिक्षा हमारी देश की प्रकृति से जुडनी चाहिए, साथ ही
आधुनिक चुनौतियों से लढ़ने में वह सक्षम होनी चाहिए.” उन्होंने अफसोस जताया, कि स्वतंत्र देश में शिक्षा अभी भी परतंत्र है.  अपराधबोध निकालने के लिए शिक्षा का भारतीयकरण जरूरी है.

हमारे ऋषियों  जो राष्ट्र की अवधारणा दी है, उसे अगली पीढी तक पहुंचाना होगा. मानवशास्त्र के विषय में राष्ट्रबोध लाना होगा. डॉ. कृष्णगोपाल ने कहा, “पिछले एक हजार वर्षों में भारतीय ज्ञान का प्रवाह अवरुद्ध हुआ था.  हम कौन है? भारत की दिशा क्या होनी चाहिए? इसका हमें विचार करना होगा.  हमें पाश्चात्य ‘नेशन’ की अवधारणा को समझना होगा और छात्रों को ठीक से समझाना होगा. भारत का राष्ट्रभाव समझना होगा. फ्रांसीसी क्रांति के बाद पश्चिमी जगत् में नेशन की अलग ही कल्पना विकसित हुई. पश्चिम की नेशनिलिटी अलगता पर आधारित है.  भारत के किसी भी शब्दकोश में एक्सक्लुजिव शब्द नहीं है.

भारत में अलगता की कल्पना नहीं है. भारत में राष्ट्र की भावना लोकमंगलकारी है.  लोकमंगलकारी यानि सभी प्राणियों के कल्याण की भावना. हमने पृथ्वी को मां माना है.भारत के साहित्य में भारत का वर्णन है. वैश्विक भावना तो है लेकिन यह विचार जहां से आया है उसके प्रति भक्ति भी है. वैश्विक होते हुए भी हम भारतीय है, यह अद्वितीय समन्वय है.

प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार ने कहा, “हमारा देश ज्ञानभूमि है. आनंद देते हुए और आनंद लेते हुए जहां ज्ञान दिया जाता है उस देश का नाम है भारत. हमारे देश पर कई आक्रमण हुए. कुछ वर्ष गुलामी में बीते, शायद इसलिए ज्ञान का आदानप्रदान कम हुआ. स्वतंत्रता के बाद भी इसमें गति नहीं आई.  वैचारिक क्षेत्र में उपनिवेशवाद आज भी चल रहा है. आज भी सांस्कृतिक गुलामी जारी है. भारतकेंद्रीत अध्ययन को बढावा देने के लिए जो सांस्कृतिक प्रयास शुरू हुआ उसका नाम है प्रज्ञा प्रवाह.

भारतकेंद्रीत चिंतन को विश्व के सामने रखना है. ज्ञानसंगम का आयोजन इसी उद्देश्य से किया गया है.” कुलुगुरु नितीन करमलकर ने कहा, “गुणवत्ता से समझौता किए बिना सबको शिक्षा प्रदान करना हमारे देश के सम्मुख उपस्थित समस्याओं में से एक है. शिक्षा प्रणाली के सर्वोत्कृष्ट परिणाम पाकर छात्रों को रोजगार मुहैय्या कराने के लिए हम सबको मिलकर विचार विमर्श करना चाहिए.

नालंदा और तक्षशीला से लेकर भारत में शिक्षा की प्राचीन परंपरा रही है. हमारे पाठ्यक्रम में प्राचीन शिक्षा प्रणाली और आधुनिक ज्ञान का संगम होना चाहिए.” कार्यक्रम का सूत्रसंचालन प्रसन्न देशपांडे ने किया.

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