काली मिर्च व आस्ट्रेलियन टीक की फार्मिंग उत्‍तराखंड में बनेगी गेम चेंजर

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नैनीताल। अब काला सोना हर्बल स्टेट की जिंदगी बदल देगा। काली मिर्च व आस्ट्रेलियन टीक की खेती से न केवल किसानों की आय में कई गुना इजाफा होगा, बल्कि पलायन भी थमेगा। इसकी खास बात यह है कि इस फसल को बंदर भी चौपट नहीं कर सकते हैं। उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पंचायतीराज संस्थान के अधिशासी निदेशक ने संस्थान में इन फसलों के उत्‍पादन का सफल प्रयोग किया है। खेती के साथ उत्पाद की मार्केटिंग कैसे की जाए, इस पर शुक्रवार को मुख्यमंत्री राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड दिल्ली के सदस्य डाक्टर राजाराम त्रिपाठी के साथ रणनीति बनाएंगे। जिसे बाद में इसकी खेती को बढ़ावा देने के लिए किसानों को जोड़ा जा सके। 

डाक्टर त्रिपाठी के मुताबिक काली मिर्च व टीक उत्तराखंड के लिए गेम चेंजर साबित हो सकता है। दक्षिण भारत के केरल, तमिलनाडु व कर्नाटक में काली मिर्च की खेती होती है। जो मसाले सहित कई हर्बल दवाओं में प्रयोग किया जाता है। इसकी दूसरे राज्यों में खेती नहीं हो सकती है, इस भ्रम को मां दांतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सेंटर रायपुर छत्तीसगढ़ के सीएमडी डाक्टर राजाराम त्रिपाठी ने तोड़ा। इसकी खेती पहाड़ के साथ अन्य राज्यों के लिए भी मुफीद है। काली मिर्च की एमडीबी 16 प्रजाति उगाई जा सकती हैं। हर्बल स्टेट घोषित उत्तराखंड में खेती के पर्याप्त संसाधन, बाजार व रोजगार के अवसर न होने से लाखों लोग पहाड़ से दूसरे राज्यों में पलायन कर गए हैं। इससे कई गांव खाली हो गए। लोगों की आर्थिक हालत में सुधार लाने व पलायन रोकने के लिए सरकार ने कई प्रयास किए, मगर जितनी सफलता मिलनी चाहिए, उतनी नहीं मिल सकी।  

राज्य के विकास के साथ पलायन कैसे रोका जा सके, किस तरह की खेती की जाए, इसके लिए यूआइआरडी के ईडी हरीश चंद्र कांडपाल ने इंटरनेट मीडिया में काफी सर्च किए। काफी मशक्कत के बाद पाया कि मां दांतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सेंटर, कोंडा गांव जिला रायपुर छत्तीसगढ़ में अधिक लाभ लेने वाले उन्न्त प्रजाति के आस्ट्रेलियन टीक व काली मिर्च की खेती की जाती है, जो काफी लाभप्रद है। इसकी खासियत है कि कम लागत में लाखों रुपये की कमाई की जा सकती है। बिना खाद व पानी की खेती और वह भी जैविक खेती। यहीं नहीं, इस फसल में पिपरी यानि कसैला पदार्थ होता है, जिसे बंदर या अन्य जानवर बर्बाद नहीं कर सकते हैं। जबकि अन्य फसलों को बंदर चौपट कर देते हैं। इससे किसान खेती करने से कतराते हैं। 

इसके लिए उन्होंने सेंटर के सीएमडी डाक्टर राजाराम त्रिपाठी से संपर्क कर काली मिर्च व टीक के दो-दो सौ पौधे मंगाकर संस्थान में लगाए। जो जबरदस्त रिजल्ट आया। इससे उत्साहित कांडपाल ने इस मामले से शासन को अवगत कराया तो शासन ने सकारात्मक रुख दिखाया। शासन ने डा. त्रिपाठी को मीटिंग के लिए बुलाया है। पांच फरवरी को देहरादून में सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत डा. त्रिपाठी से मीटिंग कर प्रोजेक्ट की बेहतरी के लिए रणनीति बनाएंगे। जिससे ऐसी व्यवस्था की जाए कि लोग खेती के जरिये आर्थिक लाभ कमा सके और पलायन को भी रोका जा सके। 

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ऐसे होती है करोड़ों की कमाई   

खेत में आस्ट्रेलियन टीक लगाने के बाद पास में ही काली मिर्च के पौधे लगा देते हैं। जिसे टीक के पेड़ों पर काली मिर्च की बेल को चढ़ा दिया जाता है। टीक की जड़े पांच मीटर तक नाइट्रोजन फिक्सेशन करती हैं जो काली मिर्च की बेल को पर्याप्त नाइट्रोजन सहित पोषक तत्व मिल जाते हैं। तीन साल में काली मिर्च से फल लिया जा सकता है। एक पौधे में दो किलोग्राम से अधिक फल निकलता है। इस हिसाब से हर साल करीब तीन लाख रुपये की काली मिर्च बेचा जा सकता है। इस प्रकार 50 साल तक फसल लिया जा सकता है। जबकि टीक के पेड़ ऐसे सात साल में तैयार हो जाता है। लंबाई करीब 70 मीटर से अधिक हो जाएगी। यदि 12 साल बाद काटते हैं तो पेड़ की मोटाई बढ़ जाएगी। बाजार में काली मिर्च की कीमत 500 रुपये और टीक की कीमत करीब 1500 रुपये से अधिक प्रति क्यूबिक मीटर है। इस हिसाब से करोड़ों रुपये की कमाई होगी। इससे किसान मालामाल हो जाएगा 

खेती के यह सीजन

15 मार्च से 15  जून के बीच पौधे नहीं लगाने चाहिए। 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में काली मिर्च की बेल तेजी से वृद्धि करती है। यह बेल 40 डिग्री तापमान सहन कर लेती है। न्यूनतम 10 डिग्री तापमान में भी फसल पर असर नहीं पड़ेगा। यदि बर्फबारी पड़ती है और पांच छह घंटे में बर्फ पिघल जाती है तो भी फसल को बचाया जा सकता है। हालांकि पाला बचाने के लिए पॉलीथीन से पौधों को ढका जा सकता है। मई-जून में फूल आते हैं और पांच-छह माह में फल आते हैं। सफेद व काली मिर्च भी होती है! 

क्या है आस्ट्रेलियन टीक

बबूल प्रजाति का उन्नत पौध आस्ट्रेलियन टीक है। जो मलेशिया टीक के नाम से आयात किया जाता है। यह एक तरह से शीशम है। जो इमारती लकड़ी में प्रयोग किया जाता है। इसकी खासियत है कि पर्यावरण संरक्षण में इसकी भूमिका है। काली मिर्च के पौधों को टीक के पत्ते पालीहाउस की तरह काम करते हैं। टीक के पत्तों में प्रोटीन की मात्रा करीब 17 फीसद होती है, जो पशु आहार में इसका प्रयोग किया जाता है। पत्ते जब नीचे गिरते हैं तो इसकी जैविक खाद बनती है जो काली मिर्च के पौधों के लिए फायदे होती है। 

किसानों की आय बढ़ाने के लिए कर रहे काम

यूआइआरडी रुद्रपुर पहुंचे मां दांतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सेंटर के सीएमडी डाक्टर राजाराम त्रिपाठी ने छत्तीसगढ़ में किसानों की आय बढ़ाने के लिए करीब 20 साल से काम कर रहे हैं। वह 34 जड़ी बुटियों पर रिसर्च कर किसानों के बीच पहुंचा रहे हैं। जिससे किसान अपनाकर अधिक कमाई कर सकें। डा. त्रिपाठी बताते हैं कि वह जड़ी बुटियों की खेती को बढ़ावा देने व विश्व बाजार मुहैया कराने के लिए दुनिया के 34 देशों का भ्रमण कर चुके हैं। वह किसानों से उत्पाद तैयार कराकर विदेशों में भी ऑनलाइन बेचते हैं। इसके लिए एक वेबसाइट बनाया है। बताया कि सरकारी विभागों के अनुभवों के आधार पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि यूआइआरडी में काली मिर्च व आस्ट्रेलियन टीक के पौधे बचे होंगे। जब देखा तो वह चौक गए कि सभी पौधे बचे हैं।  

मिर्च व आस्ट्रेलियन टीक राज्य के विकास में गेम चेंजर बनेगा 

उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पंचायती राज संस्थान के ईडी रुद्रपुर हरीश चंद्र कांडपाल ने बताया कि औरों से कुछ अलग करना चाहिए। इसी सोच के साथ राज्य के विकास व पलायन कैसे रोका जाए, इसके लिए इंटरनेट मीडिया पर काफी सर्च किया तो पाया कि काली मिर्च व आस्ट्रेलियन टीक राज्य के विकास में गेम चेंजर बन सकता है। इसके लिए डाक्टर राजाराम त्रिपाठी से संपर्क कर छह माह पहले काली मिर्च व टीक के दो-दो सौ पौधे क्रय कर संस्थान में लगा दिए थे। काली मिर्च को कोहरा से बचाने के लिए पालीथीन से ढक दिया। इनकी खेती से पलायन रुक सकेगा। एक एकड़ में सात सौ पौधे टीक के लगाए जा सकते हैं। इतने ही काली मिर्च के पौधे। इस पर करीब 80 हजार रुपर्य खर्च आएंगे।

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