नैनीताल। परंपरागत चीजों की प्रति युवा पीढ़ी का मोह कम हो रहा है। भले वह झोड़ा, छपेली, न्योली, ऋतुरैण जैसे परंपरागत लोक गीत हो या हुड़का, बिणाई, तुरही जैसे वाद्य यंत्र। नैनीताल जिले के दुरस्त धारी विकासखंड के बच्चे विलुप्त हो रहे वाद्य यंत्रों से परिचित हो रहे हैं। राजकीय इंटर कॉलेज गुनियालेख के प्रधानाचार्य गौरी शंकर कांडपाल ने परंपरागत कला को संरक्षित करने के उद्देश्य से बच्चों को प्रशिक्षित करने में जुटे हैं। समग्र शिक्षा अभियान के तहत आर्ट एंड क्राफ्ट योजना के तहत विद्यार्थियों को बिणाई, हुड़का आदि वाद्य यंत्रों से परिचित करा रहे हैं। लोकगीत, संगीत के साथ हुड़का व बिणाई बजाने का विशेष प्रशिक्षण दे रहे हैं। प्रार्थना सभा में भी बच्चे हुड़के की थाप लगाते हैं और बिणाई के स्वर छेड़ते हैं।
प्रमुख वाद्ययंत्र था बिणाई
मुंह से बनाए जाने वाला बिणाई उत्तराखंड का प्रमुख वाद्ययंत्र रहा है। उत्तराखंड की महिलाएं काम के बीच में मनोरंजन के लिए बिणाई बजाते हुए लोक गीतों को गुनगुनाया करती थी। समय के साथ यह बिणाई लोक से दूर होती चली गई। आज बिणाई बचाने वाले गिनती के लोग मिलते हैं। लोक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत रहने वाले गौरीशंकर कांडपाल कहते हैं कि परंपरागत परंपरा बची रहे और नई पीढ़ी इससे रूबरू हो, इसके लिए बच्चों को प्रशिक्षित करने में जुटे हुए हैं। इस काम में विद्यार्थी बहुत रुचि ले रहे हैं।
जागर में प्रयुक्त होता है हुड़का
हुड़का भगवान शिव के डमरू की तरह होता है। जिसे अंगुलियों के सहारे हल्का थाप देकर बजाया जाता है। कुमाऊं में परंपरागत रूप से हुड़के का इस्तेमाल होता आया है। लोक गायक व लोक गाथा यथा जागर गाने वाले कलाकार अनिवार्य रूप से इसका इस्तेमाल करते हैं।