जुमली घोड़ों की मंडी ऐतिहासिक जौलजीवी मेला; समय के साथ अब इसके कद्रदान भी घटने लगे हैं।

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जौलजीवी (पिथौरागढ़) : भारत नेपाल सीमा पर लगने वाला जौलजीवी मेला ऐतिहासिक ब्यापारिक मेला था। आज से 103 साल पूर्व जब भारत नेपाल सीमा पर जौलजीवी मेला लगने लगा तो मेले में तिब्बत के सामान के साथ-साथ यह नेपाल के हुमली-जुमली के घोड़ों की सबसे बड़ी मंडी बन गया। नेपाल के हुमली-जुमली के घोड़ों का जवाब नहीं। एक ऐसा घोड़ा जो मैदान में जेठ के तपती दोपहर से लेकर शून्य से 25 डिग्री सेल्सियस कम तापमान वाले उच्च हिमालय में रह सकता है। स्वभाव से अति सीधा हुमली-जुमली का यह घोड़ा बर्फानी नदियों को तैर कर पार कर लेता है। परन्तु समय के साथ अब इसके कद्रदान भी घटने लगे हैं।

इस घोड़ का मूल पश्चिमी नेपाल के अति दुर्गम और ऊंचाई वाले हुमली-जुमली को माना जाता है। पश्चिमी नेपाल से लेकर भारत के कुमाऊं हिल्स में इस घोड़े की सदियों से मांग रही है। जब यह क्षेत्र सड़कों से वंचित था, तब इस क्षेत्र में यातायात का सबसे बड़ा माध्यम घोड़े हुआ करते थे। घोड़ा सवारी और मालवाहक दोनों रूपों में प्रयोग में लाया जाता था। तभी से नेपाल के इस घोड़े की मांग रहती थी।

अतीत में जब जौलजीवी मेला चरम पर रहता था तो मेले में दूतीबगड़ और तहसील डीडीहाट में पड़ने वाले जोग्यूड़ा में इनकी मंडी लगती थी। इसमें धारचूला, मुनस्यारी के अलावा हुमली-जुमली के घोड़े बिकने पहुंचते थे। जब हजारों की संख्या में घोड़े आते थे। इनके खरीदार कुमाऊं के अलावा गढ़वाल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों से भी आते थे। इस मंडी में हुमली-जुमली के घोड़ों की मांग काफी अधिक रहती थी। नेपाल के अति दूरस्थ और दुर्गम क्षेत्र का घोड़ा तराई भावर से लेकर मैदान तक पहुंचते थे। ठंडे प्रदेश का यह घोड़ा तराई, भावर और मैदान की गर्मी के अनुकूल ढल जाता था। यही कारण रहा कि नेपाल के हुमली-जुमली का घोड़ा भारत में अपनी धाक जमाता रहा।

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