मुल्क की सरहदों की हिफाजत करते हुए शहादत देने वाले सैनिक के सम्मान और उसके परिजनों की सहायता के लिए सरकारें तमाम वादे और दावे करती हैं। लेकिन हकीकत यह भी है कि कई बार यह वादे-दावे केवल हवाहवाई बनकर ही रह जाते हैं। उत्तराखंड के कई कारगिल शहीदों के परिजन भी सरकारी सिस्टम की इस संवेदनहीनता का शिकार हैं। शहीद परिवारों से बात करने पर पता चला कि 22 साल में भी सरकारें कई छोटी छोटी घोषणाओं तक पूरा नहीं कर पाईं है।
गुजरात में अक्षरधाम हमले में कीर्ति चक्र विजेता शहीद सुरजन सिहं भंडारी के परिजनों को सरकार ने जमीन देने का वादा तो किया था पर आज तक उनको उस जमीन पर सरकार उनका अधिपत्य नही दिला पाई है हालांकि सरकार ने पहले जमीन दी और बाद में कुछ अड़चनों की वजह से शहीद के परिवार के हाथ आज भी खाली है, शहीद का परिवार कोर्ट और सरकार के पास जाते जाते अपने पैरों की एड़ियां घिस चुका है पर आज तक उनके हाथ मायूसी के अलावा कुछ नही लगा।
न स्कूल का नाम शहीद पर और सड़क भी न बनीं
श्रीनगर।कीर्तिनगर ब्लॉक के चौरास भ्यूंपाणी के कारगिल शहीद शिव सिंह बिष्ट के गांव के लिए पांच किलोमीटर की सड़क मंजूर है लेकिन यह फाइलों से निकल ही नहीं पा रही। शहीद के नाम पर स्कूल का नाम भी नहीं रखा गया है। परिवार के एक सदस्य को नौकरी देनेकी घोषणा भी अधूरी है। शहीद की पत्नी वीर नारी सुनीता बिष्ट का कहना है कि घोषणाओं पर अमल होने का इंतजार करते करते थक चुके हैं।
शहीद के नाम का स्कूल जर्जरहाल
चिन्यालीसौड़/उत्तरकाशी।शहीद दिनेशचंद्र कुमाईं की माता कैलाशी देवी और बड़े भाई महेश कुमाईं के अनुसार स्थानीय स्कूलों के नाम जरूर शहीद के नाम पर रख दिए गए हैं। लेकिन उनकी हालत सुधारने पर ध्यान नहीं दिया गया। जीआईसी जोगथ आज भी जूनियर हाईस्कूल के जीर्ण शीर्ण भवन पर चल रहा है। शिक्षकों के पद भी रिक्त हैं।छात्र-छात्राओं को जूनियर हाईस्कूल के जर्जर भवन में पढना पड़ता है।
शहर से दूर मिला पेट्रोल पंप, वो भी छोड़ना पड़ा
सरकार से वादे के मुताबिक शहीद के परिजनों को पेट्रोल पंप मिला था, जो बंद करना पड़ा। शहीद के भाई सुनील ने बताया कि सरकार ने देहरादून शहर में पेट्रोल पंप देने की बात कही थी, लेकिन साल 2004 में बिहारीगढ़ में पेट्रोल पंप मिला। वहां सेल नहीं के बराबर थी। ऊपर से तेल कंपनी का सेल बढ़ाने को लेकर दबाव रहता था। परेशान होकर पेट्रोल पंप छोड़ना पड़ा।
शहीद के पिता 1965 की जंग में हुए थे घायल
कारगिल शहीद संजय के परिवार का सेना और साहस से पुराना नाता रहा है। उनके पिता मेहर सिंह गुरुंग भी सेना से रिटायर थे। 1965 की जंग में अदम्य साहस का परिचय दिया था और उस दौरान वे घायल हुए थे। शहीद के सम्मान के लिए पिता ने भी खूब दौड़भाग की। इसी बीच 2017 में पिता का देहांत हो गया।
नौकरी की आस में बेरोजगार रह गया भाई
शहीद के छोटे भाई सुनील गुरुंग ने कहा कि पिछले 22 सालों में उन्होंने कई मुख्यमंत्रियों से लेकर अधिकारियों के चक्कर काटे, लेकिन न नौकरी मिली और न ही जमीन। उन्होंने कहा कि वे बेरोजगार हैं। गुरुंग ने कहा कि वे सरकार से अब उम्मीद भी नहीं रखते हैं।
75 जांबाज बेटों को याद करेगा प्रदेश
सोमवार 26 जुलाई का पूरा देश कारगिल युद्ध की 22 वीं सालगिरह को विजय दिवस के रूप मनाएगा। उत्तराखंड के लिए यह दिन बेहद खास है। कश्मीर की बर्फीली चोटियों पर 60 दिन तक लड़ी गई जंग में उत्तराखंड के बहादुर बेटों ने सबसे आगे बढ़कर और सबसे ज्यादा शहादतें दी। देश भर में हुए 527 शहीदों में 75 जांबाज उत्तराखंड से ही थे। सोमवार को गांधी पार्क स्थित शहीद स्थल पर सादे समारोह में सीएम पुष्कर सिंह धामी, सैनिक कल्याण मंत्री गणेश जोशी शहीदों को श्रद्धाजंलि देंगे। कोरेाना महामारी के कारण इस साल भी कार्यक्रम को बेहद सादा रखा जा रहा है। निदेशक-सैनिक कल्याण ब्रिगेडियर (सेनि) केबी चंद ने बताया कि शहीद स्थल पर सीमित संख्या में लोग एकत्र होंगे। कोविड की वजह से कार्यक्रम को सूक्ष्म रहेगा।
कारगिल युद्ध : युद्ध की शुरूआत तीन मई 1999 को गई थी, जब पाकिस्तान ने कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया। मामला जानकारी में आने के बाद भारतीय सेना ने आपरेशन विजय शुरू किया और भारतीय सेना ने तमाम प्रतिकूल हालात के बावजूद दुश्मन के दांत खट़टे करते हुए खदेड़ दिया। 26 जुलाई को युद्ध समाप्त हो गया था। इस दिन को विजय दिवस रूप में मनाया जाने लगा।
पराक्रम की मिसाल : कारगिल युद्ध में उत्तराखंड के बेटों ने पराक्रम की नई मिसाल पेश की। दून के 28, पौड़ी-13, टिहरी-08, नैनीताल-05, चमोली-05, अल्मोड़ा-04, पिथौरागढ़-04, रुद्रप्रयाग-03, बागेश्वर-02, यूएसनगर-02 और उत्तरकाशी का एक जवान शहीद हुआ। इस युद्ध में अदम्य पराक्रम के लिए दो महावीर चक्र, नौ वीरचक्र, 14 सेना मेडल मिले।