देशभर में पिछले कुछ समय से किसान सबसे अधिक चर्चा के केंद्र में हैं और उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। अब जबकि राज्य में लोकतंत्र का उत्सव चल रहा है तो राजनीतिक दलों ने किसानों को अपनी पहली प्राथमिकता में रखा है। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। वजह ये कि किसान भी चुनाव में किसी न किसी रूप में असर डालने वाला बड़ा समूह है। हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर जिलों में विधानसभा की 16 और देहरादून व नैनीताल जिले की तीन सीटों पर तो वे सीधे-सीधे असर डालते हैं। यही नहीं, पहाड़ी व मैदानी सभी जिलों में लघु एवं सीमांत किसानों की संख्या 10.81 लाख है और खेती उनकी गुजर-बसर का बड़ा साधन है। ये भी लोकतंत्र के हर उत्सव में बढ़-चढ़कर अपनी भागीदारी करते हैं। ऐसे में राजनीतिक दल किसानों को किसी भी दशा में नजरअंदाज नहीं कर सकते।
विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड की कृषि व्यवस्था पर नजर दौड़ाएं तो यह पहाड़ी, मैदानी व घाटी वाले क्षेत्रों में विभक्त है। स्थिति ये है कि प्रदेश के 95 विकासखंडों में से 71 में खेती पूरी तरह इंद्रदेव की कृपा पर निर्भर है। साथ ही जोत बिखरी और छोटी-छोटी हैं। यहां के लघु एवं सीमांत किसान अपनी गुजर-बसर के लिए खेती कर रहे हैं। यद्यपि, अब स्थिति कुछ बदली है और पर्वतीय व सीमांत क्षेत्रों के किसान भी व्यवसायिक दृष्टिकोण अपनाने लगे हैं।
छोटी जोत वाले इन किसानों को लघु एवं सीमांत किसान कहा जाता है। गढ़वाल मंडल में इनकी संख्या 622124 और कुमाऊं मंडल में 458875 है। पर्वतीय व मैदानी क्षेत्रों के दृष्टिकोण से देखें तो इन किसानों का आंकड़ा क्रमश: 632068 व 448931 है। यानी 1080999 लघु एवं सीमांत किसान राज्य में हैं और इनके परिवारों में औसतन तीन अन्य व्यक्तियों को वोटर मान लिया जाए तो संख्या का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। ऐसे में राजनीतिक दल लघु एवं सीमांत किसानों को किसी भी दशा में अनदेखा नहीं कर सकते। यह सही है कि लघु एवं सीमांत किसान बड़ा दबाव समूह नहीं बन पाया, लेकिन इनकी ताकत को कम करके नहीं आंका जा सकता।