वीर सावरकर एक महान स्वतंत्रता सेनानी, साहित्यकार, निर्भीक कवि और चिंतनशील विद्वान थे। अंग्रेजों के घर लंदन में रहकर उन्होंने अनेक पुस्तकें, लेख और देशभक्ति से लबालब कविताएं लिखीं। उनके द्वारा लिखी गईं पुस्तक – ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसने सरदार भगत सिंह, रासबिहारी बोस, लाला हरदयाल, श्यामजी कृष्ण वर्मा, त्रिलोक्यनाथ चक्रवर्ती, करतार सिंह सराबा, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, ऊधम सिंह और मदललाल ढींगरा जैसे युवा क्रांतिकारी तैयार किए, जिन्होंने भारत और इंग्लैंड में अंग्रेज साम्राज्यवादियों की ईंट से ईंट बजा दी।
वीर सावरकर ने अंडमान और रत्नागिरी की काल कोठरी में रहते हुए, लेखनी और कागज के बिना भी जेल की दीवारों पर कीलों, कोयला और यहां तक कि अपने नाखुनों से साहित्य का सृजन कर डाला। इस साहित्य की अनेक पंक्तियों को वर्षों तक कंठस्थ करके देशवासियों तक पहुंचाया। उन्होंने गोमांतक, कमला, हिन्दुत्व, हिन्दु पद पादशाही, सन्यस्त खडग, उत्तर क्रिया, विरोच्छवास और भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ इत्यादि ग्रंथ लिखे।
स्वातंत्र्य सेनानी वीर सावरकर ऐसे प्रथम भारतीय थे जिन पर हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। वे एक ऐसे प्रथम स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा दो दो आजन्म कारावास की सजा दी गई। वे ऐसे प्रथम इतिहासकार थे जिन्होंने 1857 में हुई देशव्यापी जनक्रांति को स्वतंत्रता संग्राम सिद्ध किया था। वे एक ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अपनी हथकड़ियां तोड़ीं और समुद्री जहाज से कूदकर अथाह समुद्र (इंग्लिश चैनल) को तैरते हुए पार किया और फ्रांस के तट पर जा पहुंचे।
वहां बैरिस्टर सावरकर ने शोर मचाया कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार विदेश की धरती पर उन्हें अंग्रेज सरकार गिरफ्तार नहीं कर सकती। परन्तु फ्रैंच पुलिस उनकी अंग्रेजी नहीं समझ सकी और न ही वे अपनी बात समझा सके। परिणाम स्वरूप वह गिरफ्तार हो गए। जरा कल्पना कीजिए कि गोलियों की बौछार से बचते हुए समुद्र में तैरना कितने साहस और निडरता का पारिचायक था। देशभक्ति के उस ज्वार को वे लोग नहीं समझ सकते जो अंग्रेजों के राज्य को ‘ईश्वर की देन’ समझते थे।
इस स्वतंत्रता सेनानी के साथ एक और भी अन्याय किया जा रहा है कि वे अंडमान जेल से माफी मांगकर अपने घर आ गए थे। ऐसे लोगों से पूछना चाहिए कि यदि वीर सावरकर ने क्षमायाचना ही करनी थी तो वे दस वर्षों तक घोर यातनाएं क्यों सहते रहे? शुरु में ही माफी क्यों नहीं मांग ली? क्यों तेल निकालने वाले कोल्हू में बैल की तरह उत्पीड़ित होते रहे? मार खाते रहे, भूखे मरते रहे, गालियां बर्दाश्त करते रहे, क्यों?
सच्चाई तो यह है कि क्षमा पत्र पर हस्ताक्षर करना उनकी कूटनीतिक रणनीति थी। जिन्दगी भर जेल में न रहकर किसी भी प्रकार से बाहर आकर स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देना उनका उद्देश्य था। उल्लेखनीय है कि छत्रपति शिवाजी भी इसी प्रकार की कूटनीतिक चाल से औरंगजेब की कैद से छूटकर आए थे और आकर उन्होंने औरंगजेब, अफजल शाह और शाइस्ता खान का क्या हाल किया था, यह सारा संसार जानता है। ध्यान देने की बात है कि सिरफिरे और कुबुद्धि इतिहासकारों ने तो राणाप्रताप पर भी अकबर से माफी मांगने का आरोप जड़ दिया था।
वीर सावरकर ने माफी नहीं मांगी थी अपितु ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की आंख में धूल झौंक कर वे बाहर आए और पुनः स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों में कूद पड़े। यह बात भी जानना जरूरी है कि अंग्रेज सरकार ने उन्हें छोड़ा नहीं था अपितु रत्नागिरी में नजरबंद कर दिया था। बाद में 1937 में उन्हें छोड़ा गया। इसी समय वीर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ और ‘हिन्दू महासभा’ इत्यादि मंचों के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अग्रणी भागीदारी को सक्रिय रखा। क्रांतिकारियों को संगठित करने का सफल प्रयास किया। वे एक व्यक्ति नहीं, एक विचारधारा थे। चाहे जेल में हों, चाहे नजरबंदी में हों, चाहे खुले मैदान में, प्रखर राष्ट्रवाद की लौ उनमें सदैव जलती रही। इस जिंदा शहीद ने कभी भी अपने सिद्धांतों और अपनी विचारधारा के साथ समझौता नहीं किया।
वीर सावरकर के ही आह्वान पर देश के हजारों युवा सेना में भर्ती हुए और समय आने पर इन्हीं सैनिकों ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बगावत कर दी। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा गठित आजाद हिन्द फौज में युवाओं के भर्ती अभियान में भी वीर सावरकर का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। वीर सावरकर ने भारत के विभाजन का भी डटकर विरोध किया था। वे अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर थे।
एक जनसभा में वीर सावरकर ने घोषणा की थी- ‘भारतमाता के अंग-भंग कर उसके एक भाग को पाकिस्तान बनाने की मुस्लिम लीग और अंग्रेजों की कुत्सित योजना का समर्थन करके कांग्रेस एक बहुत बड़ा राष्ट्रीय अपराध कर रही है’। वास्तव में अखंड भारत, सनातन हिन्दू राष्ट्रवाद, भारत की राष्ट्रीय पहचान हिन्दुत्व, सशस्त्र क्रांति के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम इत्यादि ऐसे मुद्दे थे जिनके कारण कांग्रेस और वीर सावरकर की दूरियां बढ़ती गई। कांग्रेस अपने जन्मकाल से लेकर भारत के विभाजन तक अंग्रेजों के साथ समझौतावादी नीति पर चलती रही।
कांग्रेस की हठधर्मी, अंग्रेजभक्ति, मुस्लिम तुष्टीकरण और शीघ्र सत्ता पर बैठने की लालसा इत्यादि कुछ ऐसे कारण थे जिनकी वजह से देश का विभाजन हो गया। यह एक सच्चाई है कि 1200 वर्ष तक चलने वाले स्वतंत्रता संग्राम का उद्देश्य भारत का विभाजन नहीं था। कांग्रेस अंग्रेजों और मुस्लिम लीग के षड्यंत्र में फंस गई और स्वतंत्रता के लिए दिए गए लाखों करोड़ों बलिदानों की पीठ में छुरी घोंप कर भारत का विभाजन स्वीकार कर लिया गया।
यह ठीक है कि सावरकर की विचारधारा का आधार हिन्दुत्व था और है परन्तु हिन्दुत्व का अर्थ गैर हिन्दुओं का विराध नहीं है। हिन्दुत्व भारत की सनातन राष्ट्रीय पहचान है और हम सभी 135 करोड़ भारतवासी इस पहचान के अटूट अंग हैं। हमारी पूजा पद्धतियां भिन्न हो सकती हैं परन्तु हमारी सनातन, भौगोलिक और राष्ट्रीय पहचान हिन्दुत्व ही है।
नरेन्द्र सहगल
पूर्व संघ प्रचारक, लेखक एवं पत्रकार