देहरादून। संवाददाता। नदी, झील, पहाड़, झरना और समुद्र जा जाकर अब पर्यटक ऊब चुका है। अब सिर्फ ब्रह्मांड ही अछूता है। यही कारण है कि अब देश में अंतरिक्ष पर्यटन की शुरुआत हो चुकी है। फिलहाल यह बहुत महंगा है। इसलिए नया कॉन्सेप्ट एस्ट्रो टूरिज्म आ गया है। विदेशों में तो यह चलन में है, लेकिन भारत में भी इसकी अपार संभावनाएं है। प्राचीन मंदिर व गिरजाघरों समेत देश के विभिन्न शहरों में स्थापित जंतर-मंतर को इस पर्यटन से जोड़ा सकता है।
अर्मेनिया गणतंत्र में 13 से 17 नवंबर तक आयोजित अंतर्राष्टरीय एस्ट्रोनॉटिकल हेरिटेज ऑफ द मिडिल ईस्ट सम्मेलन में भाग लेकर लौटे भारतीय तारा भौतिकी संस्थान बंगलुरु के सेवानिवृत्त खगोलविद प्रोफेसर आरसी कपूर ने जागरण के साथ बातचीत में सम्मेलन के अनुभव साझा करते हुए बताया कि आसमान में होने वाली रोमांचक खगोलीय घटनाओं के दीदार तो कहीं से भी किए जा सकते हैं। इनके अलावा भी जमीनी स्तर पर ऐतिहासिक धरोहरों का अंबार है, जिनकी महत्ता खगोल विज्ञान के लिहाज से कहीं अधिक बढ़ जाती है। हमारे देश में प्राचीन काल में बनी कई महत्वपूर्ण इमारतें सूर्य की दिशा के अनुसार ही बनी हैं।
गिरजाघरों की नींव अयनांत व विषुव के हिसाब से पड़ती थी, जबकि मंदिरों का निर्माण भी दिशा के हिसाब से ही होता था। इनके अलावा दिल्ली, उज्जैन, बनारस के जंतर-मंतर खगोल की ही देन है। इनके बल पर देश में खगोलीय पर्यटन को बढ़ावा दिया जा सकता है। समय-समय पर स्टार(तारा) पार्टियों का आयोजन किया जा सकता है। विदेशों में होने वाली स्टार पार्टियां बेहद लोकप्रिय हो चली हैं। खुले आसमान के नीचे सुनसान स्थानों व जंगलों में टैंट कैंप के जरिए आसमानी गतिविधियों को निहारा जा सकता है।
प्रोफेसर कपूर ने बताया कि अर्मेनिया सम्मेलन में कई देशों के वैज्ञानिकों ने अपने देशों में एस्ट्रो टूरिज्म की गतिविधियों में प्रकाश डाला। इस मौके पर उन्होंने भी अपना शोध पत्र भी प्रस्तुत किया। इस शोध पत्र में बताया कि भारत में एस्ट्रो टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए राज्यों के पर्यटन विभागों को आगे आना होगा। विदेशों की बात करें तो वहां वेधशालाओं के अलावा इस पर्यटन पर कार्य कर रहे निजी कंपनियों का जनसंपर्क बेहद मजबूत हैं, जिस कारण वहां का एस्ट्रो टूरिज्म काफी आगे जा पहुंचा है। भारत में भी पर्यटकों को लुभाने के लिए ऐसा ढांचा तैयार करने की पहल की जा सकती है।