जमना की रवांई रसोई ने दिल्ली से मुंबई तक बनाई अपनी अलग पहचान, परोस रही पहाड़ी व्यंजन

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उत्तरकाशी। यमुना किनारे ठकराल पट्टी के मणपाकोटि गांव (गंगताड़ी) में जन्मी जमना ने पारंपरिक पकवानों को लेकर अपनी खास पहचान बना दी है। रवांई रसोई से जमना ने दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, देहरादून, ऋषिकेश, उत्तरकाशी, नौगांव बडकोट, पुरोला में लोगों को रवांई के पारंपरिक पकवानों का स्वाद चखाया। उन्होंने इसी पारंपरिक पकवानों की रवांई रसोई के जरिए रोजगार भी तलाश है। अब दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़, देहरादून, ऋषिकेश, उत्तरकाशी में कोई भी महोत्सव हो तो जमना की रवांई रसोई उस महोत्सव में आकर्षण का केंद्र होती है।

जमना बताती है कि पारंपरिक पकवानों को बनाने की कला उन्होंने अपनी मां से सीखी है। ससुराल उत्तरकाशी जनपद के ब्रह्मखाल गेंवला में है और उसके पति लक्ष्मण सिंह रावत यमुना घाटी के नौगांव में एक निजी स्कूल में क्लर्क हैं। वर्ष 2014 से पहले से ही पारंपरिक पकवानों को बनाने का बहुत शौक था। वे मायके और फिर ससुराल में आने वाले मेहमानों को पारंपरिक पकवान खिलाती थी। मेहमान काफी तारीफ भी करते थे।

जमना बताती हैं कि वर्ष 2014 में बेटे के साथ देहरादून में थी। जब बेटा स्कूल जाता था तो वो दिनभर घर में बैठी रहती थी। फिर एक दिन नौगांव के योगेश बंधाणी ने पहाड़ी पकवानों को ले देहरादून के एक महोत्सव में परोसने के लिए प्रेरित किया। मैंने पहाड़ी पारंपरिक व्यंजन अपने घर पर तैयार किए और मेले में आने वाले मेहमानों को परोसा। बस वहीं से मैंने अपनी रवांई रसोई शुरू की।

जमना कहती है कि मेरे पति ने पूरा साथ दिया और मेरा हौसला बढ़ाया, जिसके बाद देहरादून के परेड ग्राउंड के महोत्सव, मुंबई कौथीग, दिल्ली और चंडीगढ़ चार-चार बार रवांई रसोई लगा चुकी हैं। जमना रावत कहती हैं कि पिछले दो दशकों से रवांई सहित पहाड़ों के मेले, त्योहारों-विवाह समारोह में थालियों से पारंपरिक व्यंजन विलुप्त होते जा रहे हैं। इसी के संरक्षण के लिए कई ग्रामीण महिला समूहों की मदद से यह कार्य शुरू किया है।

जमना ने बताया कि जब भी कहीं से पारंपरिक व्यंजनों को बनाने की मांग आती है तो वह खुद रात दो बजे उठ जाती है और व्यंजनों को बनाने के लिए उनकी रेसिपी तैयार करती हैं, जिससे अच्छी तरह से वो तैयार हो सकें और पहाड़ के व्यंजनों को देश-विदेश में पहचान मिल सके।

जैविक उत्पादों से सजी है रवांई रसोई

रवांई रसोई की संचालिका जमना रावत कहती हैं कि रवांई रसोई में जो भी पारंपरिक पकवान बनाए जाते हैं वे पूरी तरह से जैविक होते हैं। ये स्वास्थ्य के लिए बेहद ही फायदेमंद हैं। गांव से इन पकवानों के लिए वह उत्पाद एकत्रित करती है, जिससे ग्रामीणों की आर्थिकी भी बढ़ती है। साथ ही पारंपरिक व्यंजनों का संरक्षण भी होता है।

ये पकवान बनते हैं जमना की रवांई रसोई में

रवांई रसोई में लाल चावल के आटे, तीन, गुड, नारियाल के सीड़े, मंडुआ आटे व गुड के डिंडके, दाल की बडी, उड़द दाल के पकोड़े, झंगोरे की खीर, तिलकुचाई , मंडुआ की रोटी, लाल चावल, मंझोली, आलू का थिच्वाणी, फाणु, भटवाणि , पोस्ट की चटनी, गहत और बुरांश की इन्डोली, चावल के अरसे सहित आदि पारंपरिक पकवान बनते हैं।

पुरोला के नगर पंचायत अध्यक्ष हरिमोहन नेगी ने कहा, जमना रावत का पारंपरिक पकवानों को संरक्षित करने का समर्पण काफी अच्छा है। जो पकवान घरों में थालियों से गायब हो चुके हैं, उन पकवानों को जमना विभिन्न मेले, कौथिक में मेलार्थियों को परोस रही हैं। इससे आमजन इन पकवानों को अपने घरों में बनाने के लिए प्रेरित हो सके। साथ ही देश विदेश के पर्यटक भी अपने पारंपरिक पकवानों के स्वाद का आनंद ले सकें।

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