ये लेख जॉन लैंग की क़िताब ‘वॉन्ड्रिंग्स इन इंडिया एंड अदर स्केचेज़ ऑफ़ लाइफ़ इन हिंदोस्तान’ के एक अध्याय ‘रानी ऑफ़ झांसी’ का अनुवाद है. जॉन लैंग ऑस्ट्रेलियाई वकील और उपन्यासकार थे. ये अध्याय जॉन लैंग की झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ हुई मुलाक़ातों पर आधारित है. रानी लक्ष्मीबाई ने साल 1854 में ऑस्ट्रेलिया के वकील जॉन लैंग को नियुक्त किया ताकि वो झांसी के अधिग्रहण के ख़िलाफ़ ईस्ट इंडिया कंपनी के समक्ष याचिका दाखिल करें. उनकी यह किताब 1861 में प्रकाशित हुई थी(साभार-बीबीसी)
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से झांसी को कंपनी राज में विलय कराने के आदेश जारी किए जाने के एक महीने बाद मुझे रानी की ओर से एक खत मिला. फ़ारसी में ये ख़त स्वर्ण पत्र पर लिखा हुआ था, जिसमें अपने राज का दौरा करने का अनुरोध किया गया था. ये ख़त झांसी राज्य के दो अधिकारी लेकर आए थे, एक तो झांसी के वित्त मंत्री थे और दूसरे अधिकारी रानी के मुख्य वकील थे.
झांसी का राजस्व उस दौर में क़रीब छह लाख रुपये सालाना था. सरकारी ख़र्चे और राजा की सेना पर होने वाले ख़र्चे के बाद करीब ढाई लाख रुपये बच जाते थे. सैनिकों की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं थी, सब मिलाकर करीब एक हज़ार सैनिक होंगे इनमें ज़्यादातर सस्ते घुड़सवार सैनिक थे. जब अंग्रेजों ने झांसी को अपने शासन में मिलाने का समझौता किया था तब समझौते के मुताबिक़ रानी को साठ हज़ार रुपये सालाना की पेंशन मिलनी थी, जिसमें हर महीने भुगतान होना था.
क़ानूनी तरीक़े से गोद लिया गया था वारिस लेकिन…
रानी ने मुझे झांसी बुलाया तो इसका उद्देश्य झांसी को अंग्रेज़ी शासन में मिलाने के आदेश के रद्द किए जाने या कहें वापस लिए जाने की संभावना को तलाशना था.
हालांकि मैं गवर्नर जनरल का एजेंट रह चुका था और मुझे भी भारत के दूसरे अधिकारियों के तरह लगता था कि झांसी के कंपनी शासन में विलय का फ़ैसला अनुचित है बल्कि अन्याय जैसा है. इस मामले से जुड़े तथ्य इस तरह से थे- दिवगंत हुए राजा की अपनी इकलौती पत्नी से कोई विवाद नहीं था. राजा ने अपनी मौत से कुछ सप्ताह पहले अपने पूरे होशोहवास में सार्वजनिक तौर पर अपना वारिस गोद लिया था. उन्होंने इसके बारे में ब्रिटिश सरकार को उपयुक्त ज़रिए से सूचना भी दी थी.
ऐसे मामलों में फ़र्जीवाड़े को रोकने के लिए सरकार ने जिस तरह के प्रावधान अपनाए हुए थे, उसका पूरा पालन किया गया था. राजा ने सैकड़ों लोगों और गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि की मौजूदगी में बच्चे को गोद लिया था. इस मौके पर उन्होंने पूरी तरह से सत्यापित दस्तावेजों के आधार पर बच्चे को गोद लिए जाने की घोषणा की थी. राजा ब्राह्मण थे और उन्होंने अपने निकट संबंधी के बच्चे को गोद लिया था. वे ब्रिटिश सरकार के विश्वासपात्र राजाओं में थे.
लार्ड विलियम बैंटिक ने राजा के निधन के बाद उनके भाई को एक पत्र भी लिखा था, जिसमें उन्हें राजा कहा गया था और ये भरोसा दिया गया था कि उनके वारिस और गोद लिए वारिस के लिए, उनके राज और उसकी स्वतंत्रता की गारंटी दी गई थी. कथित रूप से कहा जाता है कि लार्ड विलियम बैंटिक के इस समझौते का बाद में उल्लंघन किया गया, जिस पर संदेह करने का कोई कारण भी नहीं है.
पेशवा के समय में झांसी के दिवगंत राजा केवल एक बड़े ज़मींदार थे और वे केवल ज़मींदार भर रहते तो उनकी विरासत का मुद्दा कभी नहीं उभरता और ना ही उनकी अंतिम इच्छा की बात होती. लेकिन राजा के तौर उनको स्वीकार किए जाने के चलते उनकी संपत्ति के कंपनी शासन में विलय की नौबत आई, इसके बदले उन्हें सालाना साठ हज़ार रुपये पेंशन देने की व्यवस्था की गई. ये बात पाठकों को भले जितनी भी विचित्र लग रही हो बावजूद इसके यह सच तो है.
जब मुझे रानी का खत मिला तब मैं आगरा में था. झांसी से आगरा पहुंचने में दो दिन का वक्त लगता था. जब मैं झांसी से चला था, तब मेरी भावनाएं इस महिला के प्रति हो गई थीं. राजा ने जिस बच्चे को गोद लिया था, वह महज़ छह साल का था. उसके बालिग होने तक राजा की वसीयत के मुताबिक़ रानी को बच्चे के अभिभावक होने के साथ साथ राजगद्दी भी संभालनी थी. ऐसे में ख़ुद सैनिक रही किसी महिला के लिए कोई छोटी बात नहीं थी कि वो अपनी स्थिति को छोड़कर सालाना 60 हज़ार रुपये की पेंशनभोगी बन जाएं
आगरा से झांसी तक का वो सफ़र
बहरहाल, मैं झांसी की रानी के आवास की अपनी यात्रा के बारे में विस्तार से बताता हूं. मैं शाम के समय अपनी पालिकानुमा बग्घी में बैठा था और अगली सुबह, दिन की रोशनी में ग्वालियर पहुंचा था. कैंट से यही कोई डेढ़ मील की दूरी पर झांसी के राजा का छोटा सा घर था, वहीं मुझे ठहरना था. मुझे वहां एक मंत्री और वकील ले गए जो मेरे साथ ही थे. दस बजे के क़रीब नाश्ता करने के बाद मैंने अपने हुक्के से तंबाकू पिया. अब हमें चलना था. दिन काफ़ी गर्म था लेकिन रानी ने मुझे लाने के लिए बड़ी सी आरामदेह बग्घी भेजी थी, जो किसी छोटे कमरे की तरह थी जिसमें हर तरह की सुविधा मौजूद थीं. एक पंखा भी लगा हुआ था जिसे झलने के लिए एक नौकर भी था.
पालकी के अंदर मेरे अलावा मंत्री और वकील तो थे ही, साथ में एक खानसामा भी था जो घुटनों में अपनी अंगीठी फंसाए कभी पानी गर्म करता तो करीब शराब और कभी बीयर. ताकि प्यास लगने पर जो चीज़ मैं मांगू वो तुरंत दिया जा सके. इस बग्घी को असीम ताक़त वाले दो घोड़े तेज रफ़्तार से खींच रहे थे. दोनों घोड़ों जमीं से 17 हाथ की ऊंचाई जितने लंबे थे. राजा ने इन्हें फ्रांस से 15 हज़ार रुपये में मंगाया था.
कई जगहों पर रास्ता भी ख़राब था लेकिन औसतन हम प्रति घंटे नौ मील की दूरी तय कर रहे थे. करीब दो बजे दोपहर में हम झांसी के क्षेत्र में पहुंचे थे. इस दौरान दो बार बग्घी खींचने वाले घोड़ों को बदला जा चुका था और अभी भी हमें नौ मील से ज़्यादा की दूरी तय करनी थी. पहले तो हमारे साथ केवल चार घुड़सवार सैनिक थे लेकिन झांसी की सीमा में पहुंचते ही हमारे आसपास करीब पांच सैनिक हो चुके थे. प्रत्येक घुड़सवार सैनिक के पास भाला दिख रहा था और सब एक जैसे कपड़ों में थे, ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों की तरह. सड़क पर कुछ सौ मीटर की दूरी पर घुड़सवार सैनिक जुड़ते जा रहे थे और जैसे जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, वैसे वैसे घुड़सवार सैनिकों की संख्या बढ़ती जा रही थी. ऐसे में जब हम क़िले तक पहुंचे तब तक झांसी की पूरी सेना हमारे साथ आ चुकी थी.
हमारी बग्घी को राजा के बगीचे में ले जा गया, जहां से मैं, वित्त मंत्री और वकील के अलावा दूसरे नौकर भी एक बड़े टेंट में पहुंचे जो आम के विशाल पेड़ों के नीचे बना हुआ था. इसी टेंट में झांसी के दिवंगत राजा ब्रिटिश सरकार के सिविल और सैन्य अधिकारियों से मिला करते थे. यह टेंट शानदार ढंग से बना हुआ था और कम से कम दर्जन भर नौकर मेरी हुकुम की तालीम के लिए मौजूद थे. वैसे मेरी इस यात्रा के दौरान सहयात्री रहे- मंत्री और वकील के बारे में मैं ये ज़रूर कहना चाहूंगा कि वे दोनों अच्छे आदमी थे. समझदार और सलीके वाले होने के साथ साथ सीखने को भी तत्पर. ऐसे में मेरी यात्रा अच्छी रही. रानी ने मुलाकात के समय के बारे में अपने कई ब्राह्मणों (पंडितों) में से एक से सलाह मशविरा किया होगा, ये लोग मुलाकात के समय भी रानी के साथ थे. इन लोगों ने सलाह दी होगी कि मुलाकात के लिए सूर्यास्त के बाद और चंद्रमा के उदय के बीच का वक्त अनुकूल होगा, ऐसे में शाम साढ़े पांच बजे से साढ़े छह बजे का वक्त मुलाकात के लिए तय हुआ था.
इसकी जानकारी मुझे दे दी गई थी और मैं इससे पूरी तरह संतुष्ट भी था. इसके बाद मैंने रात के खाने का ऑर्डर भी दे दिया. इसके बाद वित्त मंत्री ने थोड़ा खेद जताते हुए मुझसे एक संवेदनशील मुद्दे पर बात करने की इच्छा जताई. मेरी अनुमति मिलने के बाद उसने सभी नौकर, यहां तक की मेरे निजी सेवक को टेंट से बाहर निकलकर कुछ दूरी पर खड़े होने को कहा. मैं कर भी क्या सकता था, क्योंकि मैं झांसी के कुछ सैनिकों के बीच में था. वित्त मंत्री ने इसके बाद मुझसे कहा- रानी के कमरे में प्रवेश करने से पहले क्या दरवाजे पर आप अपने जूते उतार सकते हैं? मैंने जानना चाहा कि गवर्नर जनरल के दूतों ने ऐसा किया है. मंत्री ने बताया कि गवर्नर जनरल के दूतों ने कभी रानी से मुलाकात नहीं की है, और दिवंगत राजा ने कभी यूरोपीय मेहमानों को अपने निजी अपार्टमेंट में नहीं बुलाया था, बल्कि वे इसी टेंट में मेहमानों से मिला करते थे, जिसमें हम अभी बात कर रहे हैं.
मैं कुछ मुश्किल में आ गया था, क्या कहूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था. इससे पहले मैं दिल्ली के राजा से मिलने को इनक़ार कर चुका था, जो इस बात पर जोर दे रहे थे कि उनकी मौजूदगी में यूरोपीय लोगों को अपने जूते उतार लेने चाहिए. हालांकि वह विचार मुझे भी जंच नहीं रहा था और यह मैंने मंत्री को भी बताया. फिर मैंने उससे पूछा कि क्या वह ब्रिटिश महारानी के महल में लगने वाले दरबार में शामिल हुआ है, मैंने उसे बताया कि दरबार में हर किसी को अपने सिर पर कुछ नहीं पहनना होता है, सिर ढंका हुआ नहीं होना चाहिए और ये हर किसी को मानना पड़ता है. तब मंत्री ने कहा- आप अपना हैट पहन सकते हैं साहिब, रानी इसका बुरा नहीं मानेंगी और, उलटे उन्हें यह अतिरिक्त सम्मान का भाव लगेगा. हालांकि ये वो बात थी, जो मैं नहीं चाहता था. मेरी इच्छा ये था कि वह मेरे हैट पहनने को, जूते उतारने के बदले किए गए समझौते के तौर पर देखें. लेकिन इस समझौते ने मुझे एक अलग तरह की खुशी मिल रही थी लिहाज़ा मैंने सहमति दे दी और वो चाहे जो सोचें, ये उन पर ही छोड़ दिया. लेकिन ऐसा मैंने रानी के पद और उनकी गरिमा के लिए नहीं किया था. बल्कि उनके महिला होने और केवल महिला होने के चलते ही किया था.
हालांकि एक बड़ी मुश्किल का हल निकल चुका था और अब मैं बेसब्री से मुलाकात का इंतज़ार करने लगा था. मैंने ये भी तय किया कि मुलाकात के वक्त मैं काले रंग का चौड़ा वाला हेट पहनूंगा जो सफेद साफ़े से ढंका हुआ था. समय होने पर एक सफ़ेद हाथी लाया गया जिसकी पीठ पर लाल मखमली कपड़ा और चांदी का हुड लगा हुआ था. मैं लाल मखमली स्टेप्स की मदद से उस पर बैठा. हाथी को संभालने वाला महावत काफी तैयार हो कर आया था. राज्य के मंत्री हाथी के दोनों ओर सफेद अरबी घोड़ों पर बैठे थे और झांसी की सेना पीछे पीछे राजमहल की तरफ चल रही थी. आधे मील की दूरी पर राजमहल था.
जब हम दरवाज़े तक पहुंचे तब पैदल चल रहे सेवकों ने जोरों से दरवाज़ा खटखटाया. दरवाज़ा थोड़ा खुला और फिर बंद कर दिया गया. रानी तक सदेश पहुंचाया गया. 10 मिनट की देरी के बाद दरवाज़ा खोलने का आदेश आ गया. मैं हाथी सहित अंदर आ गया. गर्मी काफ़ी था और आसपास के सैनिकों के चलते मुझे सांस लेने में भी परेशानी हो रही थी. मेरी मुश्किल को भांपते हुए मंत्री ने सैनिकों को पीछे हटने का आदेश दिया. इसके कुछ देर बाद मुझे पत्थर की पतली सीढ़ियों को चढ़ने के लिए कहा गया. चढ़ने के बाद एक शख्स मिला जो रानी का रिश्तेदार था. उसने पहले मुझे एक कमरा दिखाया, फिर दूसरा. करीब छह या सात कमरे रहे होंगे. लेकिन सभी कमरे पूरी तरह तैयार नहीं लग रहे थे, हालांकि सबके फर्श पर कारपेट लगे हुए थे लेकिन सीलिंग पंखे और झाड़फनूस काम नहीं कर रहे थे. दीवारों पर हिंदू देवी देवताओं की तस्वीरें थीं और कई जगहों पर विशाल दर्पण लगाए गए थे.
कुछ देर बाद मैं एक कमरे के दरवाजे पर था. फिर उस शख़्स ने दरवाज़े पर दस्तक दी, एक महिला की आवाज़ आई, कौन है वहां? जवाब में उसने कहा- साहिब. फिर कुछ देरी के बाद दरवाज़ा खुला, उस शख़्स ने मुझे अंदर जाने को कहा और साथ ही बताया कि वो यहीं तक है. अब मेरी ओर से कुछ देरी हुई, दरअसल मेरे लिए जूते उतारना एक मुश्किल चुनौती थी. लेकिन मैंने जूते उतार लिए और मोज़े पहने अपार्टमेंट में दाख़िल हुआ.
भारी भरकम शरीर और कर्कश आवाज़
कमरे में कारपेट बिछा हुआ था और कमरे के बीच में यूरोप की बनी एक कुर्सी रखी थी और उसके पास काफी सारे फूल बिखरे हुए थे. (झांसी अपने सुंदर और सुगंधित फूलों के लिए मशहूर है) कमरे के आख़िरी हिस्से में परदा लगा हुआ था और उसके पीछे लोग बात कर रहे थे. मैं उस कुर्सी पर बैठ गया और सहज भाव से अपना हैट उतार लिया लेकिन मुझे अपना संकल्प याद आया और मैंने अपना हैट फिर से पहन लिया और अच्छे तरीक़े से उसे जमाया. हालांकि ये संकल्प बेवकूफ़ाना था क्योंकि हैट के चलते पंखे की हवा मुझ तक पहुंच नहीं रही थी. मुझे महिलाओं की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी जो किसी बच्चे से साहिब के पास जाने के लिए कह रही थीं और बच्चा इससे इनकार कर रहा था. लेकिन वह कमरे में आ गया और मैंने उससे प्यार से जब बात की तो वह मेरी ओर बढ़ा लेकिन संकोच का भाव बना हुआ था. उसने जिस तरह के कपड़े और आभूषण पहने हुए थे उससे मुझे मालूम चल गया कि ये दिवंगत राजा का गोद लिया पुत्र है जिसे ब्रिटिश शासन झांसी राज का वारिस मानने से इनकार कर चुका है.
हालांकि वह बेहद ख़ूबसूरत बच्चा था, जिसके कंधे मेरी नजर में आए दूसरे मराठा बच्चों की तरह ही चौड़े थे. जब मैं बच्चे से बात कर रहा था तभी परदे के पीछे से एक तेज पर बेसुरी आवाज़ ने बताया कि ये बच्चा झांसी का महाराजा है जिसके अधिकारों को भारत के गवर्नर जनरल ने लूट लिया है. मैंने सोचा कि ये आवाज़ किसी बूढ़ी महिला की है, जो शायद गुलाम हो या फिर उत्साही सेविका, लेकिन बच्चे ने आवाज़ को सुनने के बाद कहा- महारानी और मुझे अपनी ग़लती का पता हो चुका था.अब रानी ने मुझे परदे के और क़रीब आने के लिए आमंत्रित किया, ताकि वो अपनी शिकायत बता सकें. इस दौरान वो जब भी ठहरतीं, उनको घेर कर खड़ी महिलाएं कोरस अंदाज़ में दुख जताने लगतीं, श्राप देने लगतीं. यह मुझे काफ़ी हद दुख के समय में यूनानी पंरपरा की याद दिला रहा था तो कुछ हंसी भी आ रही थी. मैंने वकील से सुना था कि रानी बेहद ख़ूबसूरत महिला हैं जो छह से सात फीट के बीच लंबी और करीब 20 साल की हैं, मैं उनकी एक झलक पाने के लिए उत्सुक था. चाहे दुर्घटनावश हो या फिर रानी की तरफ से योजना का हिस्सा रहा हो, मुझे उनकी झलक देखने को मिल गई क्योंकि उस बच्चे ने परदे को एक तरफ ख़िसका दिया और इस दौरान मुझे रानी को पूरी तरह से देखने का मौका मिल गया.
सच यही है कि यह केवल कुछ पलों के लिए ही हुआ लेकिन मैंने रानी को जितना देखा वो उनके बारे में बताने के लिए पर्याप्त था. वह मिडिल साइज की औरत थीं, भारी भरकम लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं. जब उनकी उम्र कम रही होगी तो निश्चित तौर पर वो काफ़ी आकर्षक रही होंगी, अभी भी उनका आकर्षण कम नहीं था. ख़ूबसूरती को लेकर जो मेरा विचार है उसके मुताबिक उनका चेहरा कुछ ज्यादा ही गोल था. चेहरे पर उभरने वाले मनोभाव में अच्छे और उम्दा मालूम हो रहे थे. ख़ासतौर पर उनकी आंखें खूबसूरत थीं, नाक भी आकर्षक थी. उनका रंग बहुत साफ़ तो नहीं था लेकिन काले रंग की तुलना में वह बहुत साफ़ थीं. उन्होंने कोई आभूषण नहीं पहना हुआ था. रानी होने के बाद भी ऐसा होना थोड़ा अज़ीब था हालांकि उन्होंने कान में सोने की बालियां पहन रखी थीं. उन्होंने सफेद मलमल का कपड़ा पहना हुआ था, जो इतने कसे हुए थे जिससे उनके शरीर की बनावट का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था, जो बेहद शानदार था. हालांकि उनकी आवाज़ अच्छी नहीं थी, जो कर्कश थी, जिसे फटी हुई आवाज़ कह सकते हैं.
रानी का तोहफ़ा
जब पर्दा खिंच गया था तब उसका असर उन पर दिखा था, लगा कि वे नाराज़ हुईं लेकिन अब वह सहजता से बात कर रही थीं और उम्मीद जता रही थीं उनकी स्थिति देखने के बाद ना तो उनके दुख के प्रति मेरी संवेदना कम होगी और ना ही उनके उद्देश्यों के प्रति कोई पूर्वाग्रह ही होगा. मैंने जवाब में कहा, इसके उलट अगर गवर्नर जनरल मेरे जितने भाग्यशाली हुए तो मुझे पूरा भरोसा है कि वे झांसी को वापस कर देंगे ताकि ख़बूसूरत रानी झांसी पर राज कर सके. उन्हें ये प्रशंसा शायद पसंद आई, अगले दस मिनट तक वह ऐसी ही बातों पर चर्चा करती रही. मैंने उन्हें बताया कि पूरी दुनिया उनकी सुंदरता और बुद्धिमता की प्रशंसा करती है. उन्होंने ये कहा कि शायद ही दुनिया का कोई कोना होगा जहां मेरे कामों की चर्चा नहीं हो. इसके बाद हम उनके मामले पर वापस लौटे. मैंने उन्हें बताया कि गवर्नर जनरल के पास इंग्लैंड से संपर्क किए बिना किसी राज्य को वापस लौटाने, गोद लिए बैठे को वारिस के तौर पर मान्यता देने का अधिकार नहीं है. ऐेसे में उनके सामने सबसे बेहतर विकल्प यही है कि राजगद्दी के लिए याचिका दाख़िल करने के साथ साठ हज़ार सालाना का पेंशन लेना शुरू कर दें क्योंकि पेंशन लेने से इनकार करने पर गोद लिए बैठे के बेटे के अधिकार को हासिल करने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा.
पहले तो रानी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और उत्साह से कहा- मेरी झांसी नहीं दूंगी. तब मैंने हरसंभव नरमी से उन्हें बताया कि विरोध करना कितना नुकसानदायक हो सकता है. मैंने उन्हें बताया कि सच्चाई क्या है कि ईस्ट इंडिया कंपनी की एक टुकड़ी और तोपखाना उनके महल से बहुत दूर नहीं है. मैंने उन्हें ये भी बताया कि थोड़ा भी विरोध उनकी हर उम्मीद को ख़त्म कर देगा और उनकी स्वतंत्रता ख़तरे में पड़ जाएगी. मैं ऐसा कर पाया क्योंकि रानी और उनके वकील (मुझे लगा कि वे सच बोल रहे थे)- की बातों से मेरी समझ बनी कि झांसी के लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीनता नहीं चाहते हैं. मैं महल से जब बाहर निकला तब रात के दो बज चुके थे और उसके बाद मैं वहां से निकल पड़ा. मैंने अपनी सोच के मुताबिक रानी से बात की, हालांकि वह ब्रिटिश सरकार से पेंशन लेने की बात पर सहमत नहीं हुई थीं. उसी दिन मैं आगरा के लिए ग्वालियर के रास्ते लौटने लगा. रानी ने मुझे तोहफे में एक हाथी, एक ऊंट, एक अरबी घोड़ा और एक जोड़ी शिकारी कुत्ते दिए. उपहार में रेशमी कपड़ा और झांसी के अन्य उत्पादों के साथ भारतीय शॉल भी शामिल थी. मैं इन उपहारों को लेना नहीं चाहता था लेकिन वित्त मंत्री ने मुझे इन्हें लेने को विवश कर दिया, उन्होंने कहा कि अगर आपने इसे स्वीकार नहीं किया तो रानी की भावना आहत होंगी. रानी ने मुझे ये तोहफ़े अपनी याद के तौर पर दिए हैं, एक सैनिक की याद के तौर पर एक हिंदू की याद के तौर पर.
बहरहाल, झांसी पर रानी के शासन के लिए कंपनी शासन तैयार नहीं हुई और हम ये जानते हैं कि रानी ने नाना साहिब के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया था. नाना साहिब का दुख भी रानी की तरह था. कंपनी शासन ने नाना साहिब को पेशवाओं का गोद लिया हुआ वारिस नहीं माना था. रानी भी झांसी के दिवगंत राजा के गोद लिए हुए बेटे के बालिग होने तक राज प्रतिनिधि के तौर पर मान्यता दिए जाने की मांग कर रही थीं.