देहरादून। संवाददाता। शरद ऋतु का अपना अलग ही आनंद है। उत्तराखंड के पहाड़ व मैदानों में बारिश का प्रवाह थम चुका है और खुशगवार हो गया है मौसम। दिन सुकूनभरे हैं और रातें ठंडक का अहसास कराने वाली। हरसिंगार के शर्मीले फूल मुनादी पीट रहे हैं कि पितृपक्ष के बाद त्योहारों का सिलसिला शुरू हो जाएगा। यानी मन को हर्षित कर देने वाली ऐसी ऋतु और कोई हो ही नहीं सकती। आश्विन में शरद पूर्णिमा के आसपास तो इसका सौंदर्य देखते ही बनता है।
यह ठीक है कि ’वसंत’ के पास अपने झूमते-महकते सुमन हैं, इठलाती-खिलती कलियां हैं, गंधवाही मंद बयार और भौंरों के गुंजरित-उल्लासित झुंड हैं, मगर शरद का नील-धवल, स्फटिक-सा चमकता आकाश, अमृत बरसाने वाली चांदनी और कमल-कुमुदनियों भरे ताल-तड़ाग उसके पास कहां। संपूर्ण धरा को श्वेत चादर के आगोश में लेने को आकुल कास-जवास के सफेद-सफेद ऊर्ध्वमुखी फूल तो शरद की धरोहर हैं। पावस मेघों के अथक प्रयासों से धुले साफ आसमान में विरहता चांद और उससे फूटती एवं धरती की ओर भागती निर्बाध, निष्कलंक चांदनी पर भी शरद का ही एकाधिकार है।
तभी तो ’रामचरितमानस’ में तुलसीदास कहते हैं, ’बरषा बिगत सरद रितु आई, लछिमन देखहु परम सुहाई। फूलें कास सकल महि छाई, जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।’ (हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा ऋतु बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई है। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी आच्छादित है। जैसे वर्षा ऋतु अपना बुढ़ापा प्रकट कर रही हो)। वह आगे कहते हैं ’रस-रस सूख सरित सर पानी, ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी। जानि सरद रितु खंजन आए, पाई समय जिमि सुकृत सुहाए।’ (नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है, उसी तरह जैसे विवेकी पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए, जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं यानी पुण्य प्रकट हो जाते हैं)।