उत्तराखण्ड के अरबपति दान सिंह ‘मालदार’ की कहानी – नंदन सिंह वाफिला

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दान सिंह बिष्ट ‘मालदार’ (Dan Singh Bisht ‘Maldar’) (1906 -10 सितंबर 1964)
दान सिंह बिष्ट उर्फ़ दान सिंह ‘मालदार’ (Dan Singh Maldar) उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मंडल के अरबपति कारोबारी थे.

 

ब्रिटिश भारत में उन्हें ‘भारत के टिम्बर किंग’ (Timber King of India) के नाम से भी जाना जाता है. उन्हें पूरे भारत में एक चैंपियन कारोबारी का दर्जा हासिल था. 

 

असंख्य लोग हैं जिनकी शिक्षा का खर्च उन्होंने उठाया चाहे वह जरूरतमंद रहे हों या योग्य. बेरीनाग कस्बे के स्कूलों से लेकर अस्पतालों, खेल के मैदानों, पार्कों, धर्मार्थ केंद्रों, डिस्पेंसरियों तक हर एक सार्वजनिक जगह डीएसबिष्ट एंड संस की ऋणी हैं

कुमाऊँ के लोग उन्हें आज भी दान सिंह ‘मालदार’ के रूप में याद करते हैं. ब्रितानी मूल के भारतीय वास्तुकार लॉरी बेकर और उनकी पत्नी ने अपने संस्मरण में उनका जिक्र एक करीबी दोस्त के रूप में किया है. जो उनके समय में पिथौरागढ़ के खासे हिस्से के मालिक हुआ करते थे. मालदार कॉर्बेट के करीबी कारोबारी सहयोगी भी थे. मालदार ने जिम कॉर्बेट से नैनीताल का ग्रासियर एस्टेट और बेरीनाग के चाय बागानों को खरीदा था. कॉर्बेट द्वारा शिकार कर मारे गए बाघों की खाल दान सिंह मालदार के निवास स्थान ‘बिष्ट एस्टेट’ में रखी रहती थीं. कॉर्बेट दान सिंह बिष्ट के कर्मचारियों से जंगल के सुराग लिया करते थे. ये कर्मचारी मालदार के लिए शारदा नदी में लकड़ी के लट्ठों को बहाने का काम किया करते थे

विलियम मैकके ऐटकेन ने चौकोरी और बेरीनाग की यात्रा के दौरान ‘दान सिंह मालदार’ के दर्शनीय चाय बागानों की भी यात्रा की और इन बागानों की ‘बेरीनाग चाय’ का लुत्फ लिया था. यह चाय लंदन तक के चाय प्रेमियों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ करती थी.

दान सिंह मालदार को नैनीताल डीएसबी कॉलेज की स्थापना के लिए उनके द्वारा किये गए दान के लिए भी याद किया जाता है. नैनीताल के मध्य में 12 एकड़ से अधिक भूमि और पांच लाख रुपये की नकद राशि का चंदा दिया. उस वक्त कॉलेज के लिए दान दी गयी मौके की जमीन का मूल्य भी 15 लाख रुपये था. उनके इस कदम की स्वतंत्र भारत की नई सरकार का भी ध्यानाकर्षण किया. भारत सरकार ने उनके इस कदम की सराहना की. उस दौर में 20 लाख रुपये बहुत बड़ी धनराशि हुआ करती थी. यह वह दौर था जब रुपया पाउंड के बराबर हुआ करता था.

एक फिल्म का मिथक

इन्हीं दिनों जगमणि पिक्चर्स द्वारा मालदार नाम से एक हिंदी फीचर रिलीज़ की गयी. इस फिल्म ने शेष भारत में बहुत अच्छा कारोबार किया मगर हिमालयी हिस्सों में यह सुपरहिट रही. फिल्म एक विनम्र पृष्ठभूमि के दानी एक युवा कारोबारी के बारे में थी जो मालदार बन जाता है. इस व्यक्ति के पास बहुत सारा सामान है और वह इसे लोगों के साथ बांटता है. फिल्म के बारे में व्यापक रूप से अफवाह फैली कि दान सिंह बिष्ट द्वारा इस फिल्म के लिए पैसा दिया गया है. एक फिल्म वितरक ने दान सिंह से उस वक़्त 70,000 रुपये उधार लिए थे जब वे भारत के टिम्बर किंग के रूप में अपना साम्राज्य खड़ा कर दिया था

देश विदेश में फैलाया कारोबार

जब मालदार टिम्बर किंग के रूप में अपने कारोबार की बुलंदियों पर थे तो उनके विशाल लकड़ी के डिपो दूर-दूर तक फैले हुए थे. इनमें आफिस, मैनेजरों तथा खुद के रहने के लिए विशाल बंगले भी हुआ करते था. यह लकड़ी डिपो लाहौर से वजीराबाद तक समूची हिमालय पट्टी में दूर-दूर तक विस्तारित थे. बाद में पाकिस्तान, जम्मू से पठानकोट, कतर्निया घाट, कुरिल्या घाट और सीबीगंज बरेली, बिहार तक इनके लकड़ी के गोदाम बन गए. उस ज़माने में पिथौरागढ़, टनकपुर, काठगोदाम और हल्द्वानी से गौलापार और गारो हिल्स के साथ-साथ नेपाल में बर्दिया जिले और काठमांडू प्रत्येक स्थान पर उनके द्वारा खरीदी गयी संपत्तियां-परिसंपत्तियां हुआ करती थीं. सभी जगहों पर उनका कारोबार फैला हुआ था.

उनके बढ़ते कारोबार और परोपकारी चरित्र के कारण उनकी छवि लोककथाओं के लोकनायक सी बन चुकी थी. जो एक घोड़े पर सवार रहता और उसके हाथ जनता को दी जाने वाली सौगातों से भरे रहते.

उस दौर में ब्रिटिश रेलवे प्रणाली के लिए पटरी पर बिछाये जाने वाले लकड़ी के स्लीपरों की आपूर्ति दान सिंह बिष्ट द्वारा ही की जाती थी. असम में मौजूद उनके एजेंट जीएस भंडारी और जगदीश सिंह के मार्फ़त भी यह आपूर्ति हुआ करती थी. वे अपने इन मैनेजरों से गौरीपुर के रूपसी एअरपोर्ट पर मुलाकात किया करते. उस दौर का कोई भी लकड़ी कारोबारी दान सिंह मालदार के आसपास भी नहीं फटक सका था.

अपने उरूज पर दान सिंह मालदार की कंपनी ‘डी एस बिष्ट एंड संस’ के लिए 5000 कर्मचारी काम किया करते थे. उनकी करोड़ों रुपये की पूंजी कारोबार में लगी हुई थी. वे अंडमान और ब्राजील तक में ठेकों के लिए निविदाएं डाल रहे थे.

अपनी असामयिक मृत्यु से पहले दान सिंह बिष्ट ने अपनी आखिरी और बड़ी खरीदारी की थी. उन्होंने मुर्शिदाबाद से एक बड़ी शुगर मिल की खरीदारी की. आजाद भारत की विषम औद्योगिक नीति की वजह से दान सिंह को कलकत्ता बंदरगाह से इस मिल की मशीनरी को उठाने से रोक दिया गया. दान सिंह बिष्ट को इस मशीनरी को भारी कर्जा उठाकर पुनः खरीदना पड़ा.

नैनीताल की डीएस बिष्ट एंड संस द्वारा 1956 में ‘बिष्ट इंडस्ट्रियल कार्पोरेशन लिमिटेड’ नाम से किच्छा में एक शुगर मिल शुरू करने का लाइसेंस लिया था. 2000 तन प्रतिदिन क्षमता वाली यह शुगर मिल कुमाऊँ के गन्ना किसानों के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध होने वाली थी. दान सिंह को उम्मीद थी कि इस मिल के लिए मुर्शिदाबाद से लायी जा रही मशीनरी के मामले में सरकारी छूट मिल सकेगी. सरकारी नीतियों ने इसे असंभव बना दिया. दान सिंह एक दिन भी इस मिल को नहीं चला पाए और 1963 में उन्हें मजबूरी में इसके सभी शेयर बेचने पड़े. इसी के एक साल बाद दान सिंह मालदार की असामयिक मृत्यु हो गयी. 1971 में भारत सरकार द्वारा इस मिल का अधिग्रहण कर लिया गया.

इसके बाद दान सिंह बिष्ट काफी तनाव में आ गए. उन्हें कलकत्ता के ग्रांड होटल में तनावग्रस्त व असक्त स्थिति में पाया गया. बाद में वे अस्पताल में चैतान्यकारी स्थिति में भारती रहे. उनके बीमार होते ही उनका साम्राज्य ध्वस्त होना शुरू हो गया. 10 सितम्बर 1964 को अस्पताल में ही उनकी मृत्यु हो गयी.

दान सिंह मालदार का कोई बेटा नहीं था. उनकी मृत्यु के वक़्त तक उनकी बेटियां भी कम ही उम्र की थीं. एक पुरुषसत्ता वाले समाज में उस दौर में कम उम्र की लड़कियों के लिए इस साम्राज्य को बनाये रखना और संभाल पाना भी आसान नहीं था.

एक कुशल कारोबारी नेतृत्व के अभाव में उनके बेरीनाग और चौकौड़ी में स्थित चाय बगान अराजकता का शिकार हो गए. निष्क्रियता के साथ-साथ सरकारी नीतियों ने भी इन बागानों के तबाह हो जाने में भूमिका अदा की. बेरीनाग, चौकोड़ी और मुरादाबाद में दान सिंह की सैंकड़ों एकड़ भूमि सरकार द्वारा जमींदारी उन्मूलन अभियान के तहत अधिग्रहित कर ली गयी. चौकोड़ी और बेरीनाग कस्बे का ज्यादातर हिस्सा एक ज़माने में दान सिंह की मिलकियत हुआ करता था.

मुरादाबाद के राजा गजेन्द्र सिंह द्वारा भारी कर्ज न चुका पाने की वजह से सरकार ने उनकी जमीनों को जब्त कर नीलाम कर दिया था. तब दान सिंह ने 1945 में 235,000 रुपये में यह जमीनें सरकार से खरीदी थीं. नैनीताल में झील से सटे हुए दान सिंह मालदार के कई शानदार बंगले हुआ करते थे जो उनकी मृत्यु के बाद उनके हाथ से जाते रहे.

दान सिंह का बचपन

दान सिंह बिष्ट का जन्म पिथौरागढ़ जिले के वड्डा में 1906 में हुआ था. उनके पिता ने उस समय भारत-नेपाल बॉर्डर के मामूली से कस्बे झूलाघाट में घी बेचने की छोटी सी दुकान खोली. दान सिंह के पिता देब सिंह दक्षिणी नेपाल के बैतड़ी जिले से पलायन कर यहाँ पहुंचे थे. दान सिंह 1947 में भारत के आजाद होने तक भी नेपाली नागरिक ही बने हुए थे. 12 साल की उम्र में ही दान सिंह ने अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी. वे एक ब्रिटिश लकड़ी व्यापारी के साथ वर्मा जाकर व्यापार के गुर सीखने लगे. वर्मा तब ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करता था. यहाँ उन्होंने लकड़ी के व्यापार का अंदरूनी गणित सीखा. यहीं पर उन्होंने साहब लोगों के रहन-सहन के तौर तरीके भी सीखे, जिसने आगे चलकर इस व्यापार के छत्रप बनने में उनकी मदद की.

जब दान सिंह वर्मा से लौटे तो उनके पिता ने अपने जीवन का एक बड़ा दांव खेला. 19 सितम्बर 1919 को झूलाघाट के मामूली से दुकानदार देब सिंह बिष्ट ने एक ब्रिटिश कंपनी से उसका 2000 एकड़ का फार्म खरीदने के लिए कर्ज उठाया. दान सिंह कैप्टन जेम्स कॉर्बेट की एस्टेट से सटी बेरीनाग एस्टेट खरीदने में कामयाब रहे.

दान सिंह ने एस्टेट खरीदने की इस प्रक्रिया का बेहतरीन प्रबंधन किया. उन्होंने न सिर्फ यह टी एस्टेट खरीदने में कामयाबी पायी बल्कि चीनी चाय विक्रेताओं का वह गुप्त मसाला भी ढूंढ निकाला जिससे चीनीयों ने चाय बाजार में भारतीयों पर बढ़त बनायी हुई थी. उनके मैनेजर ने वह मसाला ढूँढ निकाला जिसके इस्तेमाल से चीनी लोग अपनी चाय में वह दिलकश रंग और जायका पैदा किया करते थे जिसका कि ज़माना मुरीद हुआ करता था. दान सिंह की चाय की लोकप्रियता तो बढ़ी ही वे चाय की दुनिया के उभरते सितारे बन चले. जल्द ही दान सिंह बिष्ट की बेरीनाग चाय भारतीय, चीनी और ब्रितानी बाजार की नंबर वन ब्रांड बन गयी. भारत सरकार के टी बोर्डों के दस्तावेजों में इसका जिक्र आज भी देखा जा सकता है.

20 मई 1924 को 18 साल कि उम्र में दान सिंह ने ब्रिटिश इंडियन कॉर्पोरेशन लिमिटेड से एक शराब की भट्टी (ब्रेवरी) खरीदी. इसकी 50 एकड़ जमीन में उन्होंने अपने और अपने पिता के लिए दफ्तर और घर का निर्माण शुरू किया.

दान सिंह बिष्ट ने कठिनाई भरे पहाड़ी इलाकों में बहने वाली नदियों पर परिवहन की दिशा में तकनीकी काम किया. उन्होंने पानी के रास्ते इमारती लकड़ियों के परिवहन और रस्सी से बने पुलों की जिस तकनीक का इस्तेमाल किया उस पर आज भी चर्चा की जाती है. उन्होंने किसनई से मेहंदीपत्थर तक एक शॉर्टकट का निर्माण किया, जिसे स्थानीय स्तर पर परिवहन को आसान बनाने के कारण ‘बिष्ट रोड’ कहा जाता है

सामाजिक कामों में भागीदारी

1947 में बिष्ट ने अपनी माँ और पिता के नाम पर श्री सरस्वती देब सिंह उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, पिथौरागढ़ का निर्माण किया. स्कूली शिक्षा के लिए अपनी तरह का यह पहला प्रयास था. शहर के केंद्र में फुटबॉल के मैदान के लिए एक कीमती भूखंड खरीदा गया. भूमि, भवन, और फर्नीचर, और अन्य जरूरतों के लिए स्कूल को शुरूआती फंड भी दिया गया. जब तक इसके स्कूल के पहले छात्रों के बैच ने अपनी बारहवीं तक पढ़ाई पूरी की तब तक नैनीताल में देब सिंह बिष्ट कॉलेज खोला दिया गया था.

इस दौरान उन्होंने SSBSE (श्रीमति सरस्वती बिष्ट छात्रवृत्ति बंदोबस्ती) ट्रस्ट भी बनाया. छात्रवृत्ति और स्कूल आज तक खुले हैं. 24 अक्टूबर 1949 को दान सिंह बिष्ट द्वारा उनकी मां के नाम पर स्थापित श्रीमति सरस्वती बिष्ट छात्रवृत्ति बंदोबस्ती ट्रस्ट पिथौरागढ़ आज भी जिले का एकमात्र ट्रस्ट है. यह एक शैक्षिक ट्रस्ट है और द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद हुए पिथौरागढ़वासियों के बेटों और बेटियों को छात्रवृत्ति प्रदान करता है.

भारतीय स्वतंत्रता के कुछ समय बाद उन्होंने वेलेस्ली गर्ल्स स्कूल को खरीदा और कुछ नयी इमारतों का निर्माण करने के बाद 1951 में इसे एक कॉलेज में परिवर्तित कर दिया गया. कॉलेज को उनके दिवंगत पिता देब सिंह की स्मृति में बनाया गया था. आज इसे कुमाऊं विश्वविद्यालय के डीएसबी कैम्पस कॉलेज के नाम से जाना जाता है.

कुमाऊं विश्वविद्यालय की स्थापना 1973 में की गई थी. जब इसमें देव सिंह बिष्ट (DSB) गवर्नमेंट कॉलेज, जिसे आमतौर पर डिग्री कॉलेज कहा जाता था, समाहित किया गया. जिसकी स्थापना 1951 में दान सिंह बिष्ट ने अपने दिवंगत पिता देव सिंह बिष्ट की स्मृति में की थी।

दान सिंह बिष्ट ने गणितज्ञ डॉ. ए.एन. सिंह को इसके पहले प्राचार्य के रूप में चुना और निर्धन छात्रों के लिए ‘ठाकुर दान सिंह बिष्ट छात्रवृत्ति’ की भी शुरुआत की. इसका उपयोग आज भी किया जाता है. लाखों लोग अपने कॉलेज के संस्थापक को क्षेत्र के पहले अरबपति परोपकारी उद्यमी के रूप में याद करते हैं. दान सिंह इन सभी युवाओं के लिए एक आदर्श हैं.

डीएसबी कॉलेज, जो अब कुमाऊं विश्वविद्यालय का प्रमुख परिसर है, की स्थापना 1951 में पूरे क्षेत्र में पहले उच्च स्तर के कॉलेज के रूप में की गई थी. कॉलेज की स्थापना 12 एकड़ भूमि और भवन की खरीद की गई थी, जिसकी कीमत लगभग 15 लाख रुपये थी. शुरुआती खर्च और वेतन के लिए 50000 रुपये रखे गए थे.

प्रख्यात पर्यावरणविद् और कुमाऊं विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर अजय सिंह रावत ने दान सिंह बिष्ट को अपनी पुस्तक नैनीताल बेकन्स में उत्तराखंड में ‘उच्च शिक्षा का अग्रदूत’ कहा है.

युवावस्था के अन्य सामाजिक कार्य

अपने दादा राय सिंह बिष्ट की स्मृति में उन्होंने तीर्थयात्रियों के लिए पहली तीन मंजिला धर्मशाला या विश्राम गृह का निर्माण भी कराया था. वे बेरीनाग में कई अस्पतालों और मरीजों को आर्थिक मदद भी दिया करते थे. दान सिंह ने बेरीनाग में एक पशु चिकित्सालय 28 अक्टूबर 1961 को दान में दिया गया था, यह एक एकड़ से अधिक जमीन पर बनी इमारत थी.

बेरीनाग में एक कॉलेज के लिए उन्होंने अपने भाई के नाम पर 30 एकड़ प्रमुख भूमि दान में दी. ऐसे ही एक स्कूल, एक खेल के मैदान, अस्पताल, और विभिन्न सरकारी कार्यालयों के लिए भी उनके द्वारा भूमि दान में दी गयी, जिसमें बेरीनाग में वन विभाग का रेस्ट हाउस भी शामिल था, क्वीतड़ में उनके पुश्तैनी गांव में पीने का पानी, बेरीनाग में विभिन्न औषधालय उनके द्वारा खोले गए. असंख्य लोग हैं जिनकी शिक्षा का खर्च उन्होंने उठाया चाहे वह जरूरतमंद रहे हों या योग्य. बेरीनाग कस्बे के स्कूलों से लेकर अस्पतालों, खेल के मैदानों, पार्कों, धर्मार्थ केंद्रों, डिस्पेंसरियों तक हर एक सार्वजनिक जगह डीएसबिष्ट एंड संस की ऋणी हैं

व्यक्तिगत जीवन

दान सिंह की 3 पत्नियां थीं, उस वक़्त हिंदू विवाह अधिनियम आने से पहले यह वैध था. दान सिंह बिष्ट की सात बेटियां थीं जो 10 सितंबर 1964 को उनकी असामयिक मृत्यु के वक़्त छोटी ही थीं. दान सिंह मालदार के आद्योगिक साम्राज्य को नियंत्रण में ले पाने में अक्षम होने की स्थिति में उनके प्रबंधकों और सलाहकारों ने चीनी मिलों, चाय बागानों, और लकड़ी के कारोबार पर नियंत्रण ज़माने की कोशिश की. आखिरकार यह साम्राज्य ढह गया

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