लोकायुक्त का ऐलान कब करेगी त्रिवेंद्र सरकार

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देहरादून। संवाददाता। सूबे के मुखिया त्रिवेन्द्र सिंह रावत द्वारा बेनामी सम्पत्तियों पर कार्यवाही करने की बात करते हुए एक बार फिर भ्रष्टाचार के खिलाफ धर्मयुद्ध लड़ने का एलान किया गया है। भले ही उनकी इस घोषणा से उन नेताओं और अधिकारियों की धड़कनें बढ़ गयी हो जिन्होने काले धन से बेनामी सम्पत्तियां जुटा रखी है। लेकिन साथ ही यह चर्चा भी आम है कि यह सिर्फ बातें ही बातें है होगा कुछ नहीं जो नेता 2011 से अब तक एक लोकायुक्त का गठन नहीं कर सके वह क्या भ्रष्टाचार मिटायेंगे और क्या बेनामी सम्पत्तियां जब्त करेंगे?

यह सवाल बेवजह नहीं है। भले ही चुनाव जीतने के लिए कोई नेता या दल भ्रष्टाचार पर कितनी भी बड़ी बड़ी बातें करे लेकिन इस दिशा में आज तक न तो कोई मारक कानून और व्यवस्था प्रदेश के नेताओं ने बनने दी है और न आज तक किसी भ्रष्टाचारी को जेल भिजवाया जा सका है। भ्रष्टाचार को लेकर सूबे के नेता कितने संजीदा है इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है लोकायुक्त का गठन। जिसके पहले प्रयास 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.सी.खण्डूरी द्वारा किये गये थे। यह विधेयक न सिर्फ विधानसभा में पारित हो गया था बल्कि राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गया था इसके बावजूद भी आज तक सूबे में लोकायुक्त का गठन नहीं हो सका है। वर्तमान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत जिन्होने भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस का नारा दिया था वह भी लोकायुक्त प्रस्ताव पेश कर इसे विधानसभा की समिति को सौंप कर ठंडे बस्ते में डाल चुके है और इसके बारे में सवाल पूछे जाने पर कहते है कि जब भ्रष्टाचार ही नहीं रहा तो फिर लोकायुक्त की क्या जरूरत है। ठीक उसी तरह वह एनएच 74 की जांच सीबीआई से कराने की बात सदन में कहने के बाद भी नहीं करा सके। ऐसी स्थिति में उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह बेनामी सम्पत्तियों के खिलाफ कोई बड़ी कार्यवाहीं करेंगे?

यहां यह उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री जिस बेनामी सम्पत्ति एक्ट में संशोधन कर इसे और अधिक मारक बनाने की बात कह रहे है उसकी क्या जरूरत है। वह सिर्फ लोकायुक्त का गठन कर दें लोकायुक्त में इन बेनामी सम्पत्तियों के खिलाफ भी कार्यवाही का प्रावधान है। लोकायुक्त को अधिकार है कि सभी अधिकारी व कर्मचारी अपनी चल अचल सम्पत्तियां घोषित करे और जो नहीं करते उनका वेतन लोकायुक्त रोक सकता है और उनकी सम्पत्तियां जब्त की जा सकती है बात कानून की नहीं है बात असल में भ्रष्टाचार रोकने की मंशा और दृढ़ इच्छा शक्ति की है। जो सूबे के नेताओं में दिखायी नहीं देती। वह बातें तो करते है लेकिन जब करने की बारी आती है तो अपनी या अपनों की गर्दन फंसने के डर से उनके कदम ठिठक जाते है।

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