पौराणिक तीर्थ यात्रा के उपेक्षित मार्गों, चट्टियों की श्रृंखला को पुनरोद्धार की दरकार- प्रेम बड़ाकोटी

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हरिद्वार से जहां एक ओर ऋषिकेश, देवप्रयाग होकर केदारनाथ तथा बद्रीनाथ तक चट्टियों की श्रृंखला थी, वहीं दूसरी ओर हरिद्वार, देहरादून, मसूरी होकर धरासू तथा यमुनोत्री व गंगोत्री तक ये चट्टियां यात्रियों को सब प्रकार की सुविधाएं प्रदान करती थीं। बद्रीनाथ से कर्णप्रयाग लौटकर वहां से रामनगर की ओर मार्ग जाता था। इसमें आदिबदरी, भिकियासैंण, कोट आदि प्रमुख चट्टियां थीं।

पौराणिक काल से तीर्थाटन के लिए पैदल यात्रा की परम्परा विकसित हुई थी। मोटर मार्गों के प्रचलन से यात्रा की यह विधा धीरे धीरे लुप्त होती गई। पैदलयात्रा मार्ग को आधार मान कर ही वर्तमान परिवहन मार्गों का निर्माण हुआ है। इस सम्पूर्ण मार्ग में चट्टी (पड़ाव) व्यवस्थाएं थीं।

हरिद्वार से जहां एक ओर ऋषिकेश, देवप्रयाग होकर केदारनाथ तथा बद्रीनाथ तक चट्टियों की श्रृंखला थी, वहीं दूसरी ओर हरिद्वार, देहरादून, मसूरी होकर धरासू तथा यमुनोत्री व गंगोत्री तक ये चट्टियां यात्रियों को सब प्रकार की सुविधाएं प्रदान करती थीं। बद्रीनाथ से कर्णप्रयाग लौटकर वहां से रामनगर की ओर मार्ग जाता था। इसमें आदिबदरी, भिकियासैंण, कोट आदि प्रमुख चट्टियां थीं।

इस प्रकार सैकड़ों चट्टियां सारे पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को इस तीर्थ/पर्यटन उद्योग से जोड़ती थीं। इनमें असंख्य तीर्थयात्रियों के ठहरने व भोजन की हर समय व्यवस्था रहती थी। इनका परिवेश पूर्णतया आत्मीयतापूर्ण तथा घरेलू था। देशभर से आए यात्रियों को हिमालय की संस्कृति परम्परा को निकट से देखने, समझने का अवसर भी प्राप्त होता था। यातयात के विकास से पूर्व तक यह व्यवस्था सशक्त बनी रही। पहाड़ के स्थानीय समाज की आर्थिकी का यह भी एक बड़ा स्रोत था।

जिन पैदल मार्गों पर सदियों से ऋषि, मुनि, तपस्वी तथा केरल के कालड़ी से चलकर स्वयं आदिशंकराचार्य तीर्थाटन को आए, वे मार्ग, वह व्यवस्था आज उपेक्षित है, अव्यवस्थित है, जिसे आज पुनरोद्धार की दरकार है।

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